Book Title: Sukhi hone ki Chabi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailesh Punamchand Shah

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Page 21
________________ जानना अत्यंत आवश्यक हो जाता है, क्योंकि उससे ही आत्मा की योग्यता ज्ञात होती है और नये कर्मों के बंध से भी बचा जा सकता है। इस मन की एकाग्रतारूप ध्यान शुभ, अशुभ और शुद्धऐसे तीन प्रकार से होता है। इस ध्यान के चार प्रकार हैं, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, और शुक्लध्यान; उनके भी बहुत अंतर्भेद हैं। मिथ्यात्वी जीवों को आर्तध्यान और रौद्रध्यान नामक दो अशुभ ध्यान सहज ही होते हैं, क्योंकि वैसे ही ध्यान के, आत्मा को अनादि के संस्कार हैं; तथापि वह प्रयत्नपूर्वक मन को अशुभ में जाने से रोक सकता है। उस अशुभ में जाने से रोकने की ऐसी विधियाँ हैं। जैसे कि आत्मलक्ष्य से शास्त्रों का अभ्यास, आत्मस्वरूप का चिंतन, छह द्रव्यों के समूहरूप लोक का चिंतन, नव तत्त्वों का चिंतन, भगवान की आज्ञा का चिंतन, कर्म विपाक का चिंतन, कर्म की विचित्रता का चिंतन, लोक के स्वरूप का चिंतन इत्यादि वह कर सकता है। ऐसा मिथ्यात्वी जीवों का ध्यान भी शभरूप धर्मध्यान कहलाता है. न कि शद्धरूप धर्मध्यान; इसलिए उसे अपूर्व निर्जरा का कारण नहीं माना है क्योंकि अपूर्व निर्जरा के लिए वह ध्यान सम्यग्दर्शन सहित होना आवश्यक है अर्थात् शुद्धरूप धर्मध्यान होना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि को तदुपरांत शुद्धात्मा का ध्यान मुख्य होता है, १६ * सुखी होने की चाबी

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