Book Title: Sukhi hone ki Chabi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailesh Punamchand Shah

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Page 29
________________ चार गति, चौबीस दंडक, चोरासी लाख जीवयोनि, एक क्रोड साढ़े सत्तानवे लाख कुल कोटि के जीव को मेरे जीव ने आरंभ से, समारंभ से, मन, वचन, काया से दुःख दिये हों; द्रव्य प्राण, भाव प्राण दुखाया हो; परितापना किलामना उपजायी हो; क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, हास्य से, भय से, खलाय से, ढीठा से, आपथापना से, परउथापना से, दुष्ट लेश्या से, दुष्ट परिणाम से, दुष्ट ध्यान सेआर्त - रौद्र ध्यान से, ममता से, हठरूप से, अवज्ञा की हो; दुःख में जोडे हो, सुख से छुड़ाया हो; प्राण, पर्याय, संज्ञा, इन्द्रिय आदि लब्धि - ऋद्धि से भ्रष्ट किये हों; तो वे सर्व मिल के अठारह लाख, चौबीस हजार, एक सौ बीस प्रकार से पाप-दोष लगे हों; तो अरिहंत, अनंत सिद्ध भगवंतों की साक्षी सह तस्स मिच्छामि दुक्कडं ! खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु में, मित्ती में सव्वभूएसु, वेर मज्झं न केणइ; एवं अहं आलोइयं, निंदियं, गरहियं, दुगंछियं, सम्मं तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिण चउव्वीसं । इति अतिचार आलोव्या, पडिक्कम्या, निंदिया, नि:शल्य हुए। विशेष विशेष अरिहंत, सिद्ध, केवली आदि, गणधरजी, आचार्यजी, उपाध्यायजी, साधु, साध्वी, गुर्वादिक को भुजो भुजो करके क्षमा चाहता हूँ, श्रावक-श्राविकाओं की क्षमा चाहता हूँ, समकित द्रष्टि जीवों की क्षमा चाहता हूँ, उपकारी माता-पिता, भाई-बहनों की २४ : सुखी होने की चाबी

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