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• स्वरूप से मैं सिद्धसम होने पर भी, राग-द्वेष मेरे
कलंक समान हैं, उन्हें धोने के (मिटाने के) ध्येयपूर्वक
धगश और धैर्य सहित धर्म पुरुषार्थ आदरना। • संतोष, सरलता, सादगी, समता, सहिष्णुता,
सहनशीलता, नम्रता, लघुता, विवेक, जीवन में होना
अत्यंत आवश्यक है। • तपस्या में नवबाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य अति श्रेष्ठ है। • सांसारिक जीव निमित्तवासी होते हैं, कार्यरूप तो
नियम से उपादान ही परिणमता है, परंतु उस उपादान में कार्य हो, तब निमित्त की उपस्थिति अविनाभावी होती ही है; इसलिए विवेक से मुमुक्षु जीव समझता है कि कार्य भले मात्र उपादान में हो, परंतु इससे उन्हें स्वच्छंद से किसी भी निमित्त-सेवन का परवाना नहीं मिल जाता और इसीलिए ही वे निर्बल निमित्तों से भीरुभाव से दूर ही रहते हैं। साधक आत्मा को टी.वी., सिनेमा, नाटक, मोबाइल, इंटरनेट इत्यादि कमजोर निमित्तों से दूर ही रहना आवश्यक है; क्योंकि कितने भी अच्छे भावों को बदल जाने में देरी नहीं लगती। दूसरा, यह सब निर्बल निमित्त अनंत संसार अर्थात् अनंत दु:ख की प्राप्ति के कारण बनने में सक्षम हैं।
नित्य चिंतन कणिकाएँ * ४७