Book Title: Shuddhopayog
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४९
सम्यग्दर्शनलब्धारो, सर्वदर्शनधर्मतः सत्यंगृह्णन्ति सापेक्ष-, दृष्ट्या जैनाः शिवार्थिनः॥५७१॥ सम्यग्दृष्टिं हृदि प्राप्य, पश्चाद् भूत्वोपयोगिनः स्वाऽन्यलिङ्गेषुसिद्धाये, सेत्स्यन्तिते च सर्वथा ॥५७२॥ सम्यग्दर्शनसम्प्राप्त्या, प्रादुर्भवति चेतने; शुद्धोपयोगसामर्थ्य, सर्वकर्मविनाशकम् ॥५७३॥ अनेकान्तमताऽम्भोधिः सम्यग्दृष्टिजनोऽस्तियः सर्वधर्मस्यमर्माणि, जानाति साध्यलक्ष्यवान् ॥५७४॥ स्याद्वादनयसापेक्षा, ज्जिनाङ्गे सर्वदर्शनम् माति मया परिज्ञातं, स्यावादनयबोधतः ॥५७५॥ सर्वदर्शनसत्यांश-, दर्शकं जैनदर्शनम् । सर्वकदाग्रहान्मुक्तं, शुद्धोपयोगदर्शकम् ॥५७६॥ रुणडिसत्यबोधेन, सर्वविश्वकदाग्रहान् ; सर्वदर्शनसद्रूपं, जयताज्जैनदर्शनम् ॥५७७॥ जैनदर्शनमाऽऽत्माऽस्ति, स्वाऽऽत्माऽहंजैनदर्शनी; जिनश्चजैनरूपोऽहं, साध्यसाधनभावतः ॥५७८॥ मुक्त्यर्थयोजिनैर्दिष्टो, जैनधर्मःसउच्यते, आदर्शध्येयरूपोऽस्ति, पूर्णाऽऽत्मशुद्धिकारकः ॥५७९॥ आत्मनःपूर्णशुड्यर्थ, जैनधर्मोऽस्ति साधनम् । द्रव्यभावारिजेतारो, जैना जिनाऽनुयायिनः ॥५८०॥ जैनास्तु साधकाऽऽत्मानो, मोहनाशनतत्पराः रागद्वेषविजेतारो, केवलज्ञानिनो जिनाः ।।५८१॥ जैनधर्मो जिनो जैन, आत्मैवचाऽऽत्मपर्यवाः आत्मनःशुद्धपर्याय-, सिद्धरूप मुपास्महे ॥५८२॥
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180