Book Title: Shuddhopayog
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 130
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૦૭ भवन्ति कमप्रकृतेर्वशा ये, ब्रह्मादयस्तेऽपि पराश्रयास्युः। त्वं भव्यमाऽऽत्मानमतो लभस्व, धर्मस्य सत्कर्म कुरुष्व तस्मात् ॥ १२ ॥ मोहेन न परतन्त्रता स्याचतुर्गतिवाशु जना ब्रजन्ति । इन्द्रादयस्ते परवन्त एव, न मानसाः कर्मवशाः स्वतन्त्राः ॥ १३ ॥ न ज्ञापसे मोहत इष्टसत्यंदुःखी भवेन्मोहवशो मनुष्यः। पश्यन्ति नो मूढजनाश्च देवं, न चित्तमोहं परिवर्जयन्ति ॥ १४ ॥ तस्माद श्रेणिकराज लब्ध्वा, ज्ञानं पर मानय चाऽऽत्मधर्मम् । भ्रान्तिविनश्येत्परमाऽऽत्मबोधाद्, वर्तेत सोल्य निरुपाधिशान्तिः ॥ १५ ॥ जडेषु गो रक्ष ममत्वलेश, दिवावि धूहि मुखेन सत्यम् । कदापि स्या जडमोहमुग्धस्तस्माऽसौ भविताऽऽत्ममुक्तिः ॥ १६ ॥ विनमा पुद्गलपर्यवास्ते, स्वीया भविष्यन्ति न ते कदाचित् । दूरं ममत्वं कुरु पुद्गलानां, निवारप त्वं जडभोगबुद्धिम् ॥ १७ ॥ For Private And Personal Use Only

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