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श्रुतसागर - ३२
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दुर्जन-क्रूरकुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आए ।
सौम्यभाव रक्खूं मैं उन पर ऐसी परिणिति हो जाए ।
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गुणीजनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आए । बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पाए ।। होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आए। गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जाए ।। फैले प्रेम परस्पर जग में, औरों का उपकार करें।
अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं, कोई मुख से कहा करें ।।
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क्षमा का भाव हमें विकास के पथ पर सदैव आगे बढ़ाता है। ऊँचा उठाता है । हम क्षमा करने से आर्थिक रूप से लाभान्वित होते है। अपितु शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ रहते है । अपना कार्य कुशलता पूर्वक कर सकते है। जीवन में सदैव प्रगति करते है। अपनी भूल स्वीकार करने से भी यही लाभ प्राप्त होते है। हम ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति के साथ मित्रता का भाव रखें। ठेस पहुँचाने की घटना को यथाशीघ्र भुला दें। ठेस पहुँचाने वाले को क्षमा कर दें। ठेस पहुँचाने की घटना के बोझ को कभी न ढोऐं कल हुई घटना को कल पर ही छोड़ दें। ऐसी घटना को यथाशीघ्र विस्मृत कर दें । उसको कभी स्मरण नहीं करें । उसकी कभी चर्चा न करें । उसका कभी स्मरण न करें। ऐसी नकारात्मक घटना के स्मरण से हमको ही क्षति पहुँचती है।
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क्षमा की सखी मैत्री के भावों के विकास के लिए अपनी विचारधारा को हम विशाल एवं संवेदनशील बनाएँ । प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सद्भाव रखें। प्रत्येक व्यक्ति के साथ सद्व्यवहार करें। अपनी चेतना को उदार और व्यापक बनाएँ। अपनी चेतना को क्षुद्रता और संकीर्णता से बचाएँ। मैत्री केवल हमारे ऊपर ही निर्भर होती है। मैत्री किसी दूसरे व्यक्ति पर निर्भर नही होती है। मैत्री से हमारे मन में उल्लास और उत्साह का संचार होता है । अपने मित्र को देखते ही हमारे चेहरे पर मुस्कान खिल जाती है। हमारी आँखें चमकने लगती है। हमारा हाथ प्रसन्नता से मित्र के हाथ से मिलने के लिए आगे बढ़ जाता है । मैत्री भाव से हमारे मन की ग्रन्थियाँ खुल जाती है। हमारे व्यक्तित्व से दुराव, छिपाव, तनाव और अवसाद जैसे दुर्गुण दूर हो जाते है । हमारा व्यक्तित्व सहज, सरल, सरस और भारमुक्त हो जाता है ।