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श्रुतसागर - ३२
७५ (७) तुर्यगा अवस्था -
भूमिषट्कचिराभ्यासाद् भेदस्यानुपलम्भतः। यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगागति ।।
यह देहातीत विशुद्धि व आत्मरमण की अवस्था या मुक्तावस्था है। इसे जीवान्मुक्त अवस्था कहते हैं। इस भूमि की तुलना १३वें गुणस्थान के उत्तरार्ध से की जा सकती है।
उपरोक्त चौदह भूमियों का गुणस्थान से तुलनात्मक विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि योगवशिष्ठ में वर्णित प्रथम सात अवस्थाएँ मिथ्यात्व गुणस्थान तथा अधिकतम तृतीय मिश्र गुणस्थान के साथ समतुल्यता रखती है जिसे आध्यात्मिक अविकास कहा जाता है।
ज्ञान की सात भूमियों में से पहली तथा दूसरी का पूर्वार्ध चतुर्थ सम्यक्त्व गुणस्थान जैसा है जिसमें साधक सम्यग्दर्शन के साथ आध्यात्मिक यात्रा की ओर आरम्भिक कदम रखता है इस द्वितीय भूमि का उत्तरार्ध तथा तीसरी भूमि का पूर्वार्ध देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्त गुणस्थान के समान प्रगति पथ पर बढ़ने का प्रयास है। तीसरी भूमि के उत्तरार्ध में ८-९वें गुणस्थान जैसी अनुभूति की अपेक्षा की जा सकती है। चौथी भूमि की समानता १०वें और ११वें गुणस्थान से कर सकते हैं जबकि पाँचवी असंशक्ति भूमि में जीव के परिणाम १२वें गुणस्थान के समकक्ष प्रतीत होते हैं। इसी क्रम में छठवी भूमि की लाक्षणिकताएँ सयोग केवली गुणस्थान से मिलती-जुलती हैं। समीक्षात्मक रूप स यह कहा जा सकता है कि योगवशिष्ठ में वर्णित १४ श्रेणियाँ भले ही ज्यों की त्यों मेल न खाती हों फिर भी दोनों दर्शनों के अभिगम लक्ष्य सिद्धि के पथ को लेकर उच्चस्तर पर साम्यता का परिमाण मिलता है। योग दर्शन में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँ -
योग साधना का अंतिम लक्ष्य है। चित्त निरोध अर्थात् (मन) योगिक चंचलता (मन, वचन, काय) को काबू में रखना ही योग निरोध है। इसलिए योग भी चित्त का धर्म है। दुःख और व्याकुलता से मुक्ति एवं शाश्वत सुख की अनुभूति हेतु इसका नष्ट होना अपरिहार्य है। 'चित्त में सत्व-रजस-तमस इन तीन गुणों की विद्यमानता रहती है। वास्तव में यह अस्थिरता राग-द्वेषादि, संकल्प-विकल्प के चलते उत्पन्न होती है। चित्त की विशिष्टता को उसकी पाँच अवस्थाओं अथवा भूमियों के माध्यम से समझा जा सकता है
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