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सितम्बर - २०१३ गुणस्थान से की जा सकती है। (३) तनुमानसा अवस्था -
विचारणा शभेच्छाभ्यामिनद्रियार्थे एवं सक्तता । वक्त्रं यात्र सा तनुताभावात् प्रोच्यते तनुमानसा ।।
यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था है। इस अवस्था में यह कहना उचित होगा कि साधक की इच्छाओं और वासनाओं के प्रति आसक्ति क्षीण-प्राय (तनुभाव शेष) हो जाती है। इसे छठवें गुणस्थान के समकक्ष माना जा सकता ह। (४) सत्वापत्ति अवस्था -
भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्तेर्थे विरतेर्वशात्। सत्यात्मनि स्थितिः शुद्धे सत्वापत्तिरुगाहृता ।।
यह शुद्धात्म स्वरूप की वह अवस्था है जो जीव को बाह्य पदार्थों से विरक्ति के परिणामस्वरूप प्राप्त होती है। यह आत्मा में शुद्ध परिणामों की स्थिरता का प्रतीक है। (७) संसक्ति अवस्था -
दशाचतुष्टयाभ्यासादंससर्ग-फलेन च। रूढसत्वचमत्कारात् प्रोक्ता संसक्तिनामिका ।।
यह आसक्ति के विनाश की असंसर्ग या अनासक्ति के परिपाक की अवस्था है जिसमें चित्त के अन्दर निरातिशय आत्मानन्द का अनुभव हो जाता है। (६) पदार्थभावनी अवस्था -
भूमिकापञ्चकाभ्यासात् स्वात्मारामतया दृढम्। आभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ।। परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनार्थ-भावनात्। पदार्थभावना नाम्नी षष्टी संजायते गतिः ।।
यह भोगेच्छा के पूर्णतः विनाश की अवस्था है जिसमें बाह्य और अभ्यन्तर पदार्थों की भावना दृढ़तापूर्वक छूट जाती है और शरीर की स्थिति भी पर प्रयोग के निमित्त (त्रियोग जनित) से रहती है जीव की इच्छा पर संचालित नहीं होती।
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