Book Title: Shrutsagar 2019 07 Volume 06 Issue 02 Author(s): Hiren K Doshi Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba View full book textPage 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR July-2019 संपादकीय रामप्रकाश झा धर्माराधना और आत्मकल्याण हेतु सर्वथा अनुकूल चातुर्मास का प्रारम्भ हो चुका है। गुरुजनों की निश्रा में की गई साधना मिथ्यात्वादि दोषों को दूरकर व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास की ओर ले जाती है। श्रुतसागर के इस अंक में विभिन्न लेखों के माध्यम से वाचक वर्ग की ज्ञानपिपासा को संतृप्त करने का एक छोटा सा प्रयास किया गया है। चातुर्मास प्रारम्भ हो रहा है, इस उपलक्ष में सर्वप्रथम “गुरुवाणी” शीर्षक के अन्तर्गत अध्यात्मयोगी आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के पत्रों के माध्यम से साधुओं व भक्तों को चातुर्मासिक आराधना कैसे करनी, करानी चाहिए, इस विषय में दिए गए संदेशों के कुछ अंश प्रकाशित किए जा रहे हैं । द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, इसमें जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है। “ज्ञानसागरना तीरे तीरे” नामक लेख में डॉ.कुमारपाल देसाई के द्वारा आचार्यदेव श्रीमद बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय प्रस्तुत किया गया है। अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “वरकाणापार्श्वनाथ गज़ल” प्रस्तुत किया जा रहा है। इस कृति के माध्यम से कवि ने वरकाणा पार्श्वनाथ के जिनालय की मुख्य विशेषताओं तथा प्रभु के दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। द्वितीय कृति के रूप में पूज्य साध्वी काव्यनिधिश्रीजी के द्वारा सम्पादित मुनि श्री प्रतापविजयजी कृत “१९ दोष काउसग्ग सज्झाय” प्रकाशित किया जा रहा है। इस कृति में कायोत्सर्ग के १९दोषों का वर्णन करते हुए इस बात पर जोर दिया गया है कि दोषयुक्त क्रिया प्रायः निष्फल हो जाती है । पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८२,अंक-२ में प्रकाशित “गुजराती माटे देवनागरी लिपि के हिंदी माटे गुजराती लिपि” नामक लेख का पुनःप्रकाशन किया जा रहा है। पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत पूज्य आचार्य श्री रत्नशेखरसूरिजी द्वारा रचित तथा स्वोपज्ञ टीका से अलंकृत “गुरुगुणषट्त्रिंशत् षट्त्रिंशिका कुलक” पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है। इस अंक में "श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर का योगदान" नामक शीर्षक के अंतर्गत सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय में प्रदर्शित कलाकृतियों की विशेषताओं और उनके ऐतिहासिक महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे। For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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