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July-2019 नालंदा से प्राप्त प्रतिमाएँ उस युग की सौंदर्य-चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन तीर्थंकर प्रतिमाओं में प्राचीन परंपरा से कहीं अधिक प्रगतिशील स्थूलता को सरलता से रेखांकन करने का प्रयत्न किया गया है।
एक प्राणवान रूप प्रदान करने की भावना सभी प्रतिमाओं में दिखाई देती है। जहाँ कहीं प्राचीन परंपरा रह गई है, वह कुषाणकालीन मथुरा शैली के प्रभाव के कारण है। समग्र रूप से ये प्रतिमाएँ उत्तर और मध्य भारत के अन्य क्षेत्रों की कलाकृतियों के सदृश हैं।
प्राचीनतम प्रतिमाओं में बलुआ पत्थर से निर्मित द्वारपाल की प्रतिमा प्रदर्शित की गई है। जो लगभग ३री शताब्दी की है। उसके ऊपरी भाग में मत्स्यांकन दिखाया गया है। मत्स्यांकन प्रतिमा के कुषाणकालीन होने का प्रमाण है।
विभिन्न प्रदेशों से प्राप्त विभिन्न शैलियों की एवं विविध सामग्रियों में निर्मित जिनमंदिर की बारसाख, स्तंभ, तोरण, वाद्ययुक्त शालभंजिकाएँ, देव-देवियाँ एवं स्वद्रव्य निर्मित जिनमंदिर के दाता का शिल्प आदि आकर्षक कलाकृतियों को रोचक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
प्रस्तुत शिल्पांश को प्रदर्शित करने का ध्येय जिनमंदिर के महत्वपूर्ण भागविभागों की जानकारी देना है। भारत के कई जिनमंदिर अपने स्तम्भ एवं दीवारों पर की गई नक्काशी एवं महत्वपूर्ण प्रसंगों के चित्रांकन के लिये विश्वप्रसिद्ध है, शलुंजय, सम्मेतशिखर, गिरनार, आबु के जिनमंदिर, नालंदा, खजुराहो, तारंगा, कुंभारिया, ओसियाजी, राणकपुर, देवगढ के जिनमंदिरों में की गई नक्काशी उस समय के समाज की धर्मभावना एवं कला के प्रति उदारता की साक्षी है। ____ भारतीय धातुप्रतिमा के इतिहास में जैनकला का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
जैनकला की सबसे पुरानी कांस्य प्रतिमा चौसा (जि. भोजपुर, बिहार) से प्राप्त हुई है, जो पहली शताब्दी की मानी जाती है। ___भगवान आदिनाथ से महावीर स्वामी तक की ७वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य निर्मित कांस्य प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं में अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताएँ, कला एवं धर्मभावना को अंकित किया गया है। इनमें से कई प्रतिमाओं के पीछे प्रशस्तियाँ अंकित की गई हैं, जो जैन इतिहास एवं परंपरा के संशोधन में महत्वपूर्ण हैं।
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