Book Title: Shrutsagar 2017 05 Volume 12 Author(s): Hiren K Doshi Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR May-2017 सेववा-पूजवा-आराधवारूप द्रव्य अने भावथी भक्ति करतां खरेखर सेवकनो आत्मा ते प्रभुरूप थाय छे. प्रभुनी भक्ति करनाराओमां प्रभुना गुणो प्रतिदिन प्रगटता जाय अने कषायोनी मन्दता प्रतिदिन थती जाय तो समजवू के तेओनामां खरी भक्ति प्रगटवा पामी छे. गृहस्थोए प्रभुनी द्रव्य अने भावथी भक्ति करवी जोइए. प्रभुनी द्रव्य भक्तिमां भावनी अपेक्षाए अल्पहानि छे अने लाभ घणो छे. गृहस्थोए प्रतिदिन प्रभुनी पूजा करवी जोइए. साधुओ भावस्तवना अधिकारी छे. अक्षरो रूप मूर्तिना आलंबन वडे जेम ज्ञाननी यादी आवे छे तेम प्रभु प्रतिमाना अवलंबनथी साक्षात् प्रभुनु स्मरण थाय छे. रागीन चित्र देखवाथी जेम राग उत्पन्न थाय छे तेम वीतरागनी मूर्ति देखवाथी वीतराग गुण- स्मरण सेवन थाय छे. आखी दुनिया अनेक रीतिए मूर्तिपूजक छे एम विद्वानो कथे छे. (संपूर्ण) प्रभुजी० १ प्रभुदर्शन स्तवन (अवसर बेर बेर नहीं आवे-ए राग.) प्रभुजी तुम दर्शन सुखकारी, तुम दर्शनथी आनंद प्रगटे; जगजन मंगलकारी. तप जप किरिया संयम सर्वे, तुम दर्शनने माटे; दान क्रिया पण तुज अर्थे छे, मळतो निज घर वाटे अनुभव विण कथनी सहु फीकी, दर्शन अनुभव योगे; क्षायिक भावे शुद्ध स्वभावे, वर्ते निज गुण भोगे देश विदेशे घरमां वनमां, दर्शन नहीं पामीजे; दर्शन दीठे दूर न मुक्ति, निश्चियथी समजीजे चेतन दर्शन स्पर्शन योगे, आनंद अमृत मेवा; बुद्धिसागर साचो साहिब, कीजे भावे सेवा. प्रभुजी० २ प्रभुजी०३ प्रभुजी०४ प्रभुजी०५ For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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