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SHRUTSAGAR
May-2017 प्रति के आधार से इसकी प्रतिलिपि की गई है। अंकपल्लवीलिपि की लेखन शैली में यहाँ कई विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। गाथा-७ अंतर्गत अंक-४ में ह्रस्व इकार (४ि), अन्य गाथा में भी अंक के साथ ह्रस्व उकार (३), कहीं-कहीं नाम के पूर्व में श्री शब्द दिया हुआ है वह प्रक्षिप्त या अधिक पाठ प्रतीत होता है. क्वचित् पाठ के मध्य हे, पेखत आदि शब्द देवनागरी में ही लिखे हुए मिलते हैं। लिपिकार ने प्रत्येक ख की जगह ष का ही उपयोग किया है। जैसे कि सखी में उपयुक्त शब्द ८२४ षी(खी)। इसे यथावत् लिप्यंतर करके सही शब्द कोष्ठक के अन्दर (खी) इस तरह दर्शाया गया है। किसी विद्वान द्वारा कहीं-कहीं सुधार भी किया गया है।
इसे पढने हेतु वर्णमाला का वर्ग, वर्ण व मात्रा इन तीनों के योग्य संयोजन से पढा जाता है। इस लिपि में संयुक्ताक्षर का अभाव पाया गया है. यथा- प्रभ की जगह परभ, प्रभु की जगह परभि(भु) आदि. संभव है कि देशी भाषा होने के कारण हलन्त की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई हो. संस्कृत व प्राकृत भाषा के लिये अंकपल्लवीलिपि में लिखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा. ऐसी लिपि देखने में अब तक नहीं आई है. प्रस्तुत लिपि को पढने में प्रथम वर्ग, द्वितीय वर्ण एवं तृतीय मात्रा इस तरह ज्यादातर ३ अंकों का समूह बनेगा, क्वचित् अनुस्वार के लिये ११ व विसर्ग के लिये १२ इस तरह अक्षर के साथ जोड़ा जाता है, तब अक्षर हेतु ४ भागों में विभक्त ५ अंकों का भी हो जाता है. तात्पर्य है कि शब्द संयोजन में जैसा आवश्यक हो, उसी प्रकार अंकसंयोजन करें. जैसे पहली गाथा के प्रथम पाद में उल्लिखित-भाव हे सखी भाव में भा अक्षर के लिये आठ वर्गों में छ?(६) पवर्ग का चौथा (४) वर्ण यानि कि भ एवं आकार की मात्रा के लिये मात्रावर्ग की दूसरी मात्रा का अंक लिखा हुआ है. इस प्रकार भा का अंक ६४२ हुआ. इसी क्रम में व का वर्ग-७वां एवं उसका वर्ण-४था ७४। इस प्रकार भा के लिये ६४२ एवं व के लिये ७४। दिया गया है. उल्लेखनीय है कि अकारयुक्त अक्षर के लिये यहाँ पर दो प्रकार से प्रयोग पाया गया है. उदाहरण के तौर पर प्रथम गाथा में द अक्षर के लिये ५३१। इस तरह से १अंक के प्रयोग के साथ मिलता है जबकि व अक्षर के लिये ७४। इस तरह से तृतीय स्थान पर १ अंक के बिना लिखा हुआ मिलता है. अक्षर को अलग-अलग पढने के लिये अंकसमूह के बाद विभाजक संकेत हेतु दंड (1) का उपयोग किया जाता है. पाठकों को सरलता से पढने के लिये आठ वर्ग, वर्ण व मात्रा सहित लेख के अंत मे तालिका दी गयी है. कृति व विद्वान परिचय __मारुगूर्जर भाषाबद्ध तेवीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का यह सुंदर स्तवन है। गाथा-५ के अंत में “जिन छेछलीजी” उल्लेख से स्तवन की एक विशेषता यह भी सिद्ध होती है कि पार्श्वनाथ के १०८ नामों में से एक छेछली(सेसली)पार्श्वनाथ का यह स्तवन है. सेसली पार्श्वनाथ का यह तीर्थ राजस्थान प्रांत में जिला-पाली, प्रखंड-बाली के सेसली गाँव में है. बाली के नजदीक नारलाई गाँव से प्रतिमाजी लाकर संवत् ११८७ में आचार्य आनंदसूरि के हाथों प्रतिमाजी की स्थापना की गई. श्रेष्ठि श्री मांडण संघवी ने स्वद्रव्य का सद्व्यय करके
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