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श्रुतसागर
मे-२०१७ शिखरबद्ध जिनालय का निर्माण कराया था. ___यह स्तवन भाववाही, रोचक व भक्ति से ओत-प्रोत है। इसमें कुल ७ गाथाएँ हैं। १ से ६ गाथा में भगवान की महिमा का गुणगान किया गया है एवं ७वीं गाथा में कर्ता का परिचय गुंफित है। कर्ता तपागच्छाधिराज आचार्य विजयप्रभसूरि के गच्छाधिपति काल में पूज्य महिमाविजयजी के शिष्य लालविजय है। प्रशस्ति में रचना स्थल या संवत् का उल्लेख नहीं है, किन्तु लेखन संवत् १७८९ होने से तथा प्रस्तुत प्रति किसी अन्य प्रति के आधार से लिखवायी जाने का उल्लेख होने से कृति का रचना काल करीब ५० वर्ष से पूर्व का होना चाहिये। जैन परम्परानो इतिहास भाग-४ के अनुसार तपागच्छाधिपति विजयप्रभसूरि की शिष्यपरम्परा में भाणविजय, लावण्यविजय, महिमाविजय व नित्य(नीति)विजय का क्रमशः उल्लेख है. अतः लालविजयजी नित्यविजय के गुरुभाई हुए. यहाँ नित्यविजयजी द्वारा वि.सं. १७४५ में नवस्मरण पर टबा रचने का उल्लेख किया गया है. अतः कर्ता नित्यविजयजी के समकालीन होने में संशय नहीं है. अतः रचना व कर्ता का समय वि.सं.१७वीं से १८वीं के मध्य अनुमानतः किया जा सकता है।
__ लघुकाय यह कृति संभवतः अप्रकाशित है। इसी भंडार में इसी कर्ता के द्वारा रचित मौनएकादशीपर्व स्तवन भी है, जो मात्र ४ गाथाओं में हैं। अंकपल्लवीलिपि का देवनागरी में लिप्यंतर का यह प्रथम प्रयास है। क्षतियाँ संभवित हैं, अतः सुधार करते हुए पढ़ें तथा इस संदर्भ में हमारा ध्यान आकृष्ट करें। अंकपल्लवीलिपि में लिखे होने से अर्थसंगति की दृष्टि से कुछेक स्थलों पर सुधार किया गया है तथा अपेक्षित योग्य शब्द व अंक कोष्ठक के मध्य में दिया गया है। ध्यातव्य है कि ह्रस्व उकारवाले शब्द कई जगह ह्रस्व इकार के रूप में पाये गये हैं. जैसे किपरभि-परभु, मिख-मुख, सिष-सुख, सिंदर-सुंदर आदि इस तरह मूलपाठ को यथावत् रखकर उसके साथ शुद्ध पाठ को कौंस में बताया गया है.
अंकपल्लवीलिपिदर्शक वर्णमाला कोष्ठक | वर्ग | १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | | अ | आ | इ | ई | उ | ऊ | ए | ऐ | ओ | औ | अं
ख
| प | फ
| ब | भ | म |
८ | श | ष | स | ह मात्रा | 0 | | | |
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