Book Title: Shrutsagar 2017 05 Volume 12
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 श्रुतसागर मे-२०१७ संयोगवशात् एक प्रत की प्रतिलेखन पुष्पिका अंकमय होने से स्पष्टता हेतु पूज्य आचार्य श्री अजयसागरसूरिजी म.सा. को बताने का हुआ। पूज्यश्री ने देखते ही अपने साहजिक भाव में बताया कि वर्णमाला के वर्ग, वर्ण व मात्रा इन तीनों के अंकसंकेत से वर्णमाला के अक्षरों का स्पष्टीकरण हो सकता है। उदाहरण के तौर पर गणना करके उन्होंने प्रतिलेखन पुष्पिका भी स्पष्ट कर दी। यह स्पष्ट होते ही हस्तप्रत सूचीकरण से जुड़े सभी संपादक मित्रों को अपार हर्ष हुआ। यह सौभाग्य की बात है कि गुरु की गुरुचावी से इस पहेली का ताला खुल गया। पूज्यश्री के ज्ञानवैभव की भूरि-भूरि अनुमोदना। इनके इस उपकार के प्रति हम संपादकगण चिरऋणी रहेंगे। कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची भाग-११ के लिये २०१२ ई. में जब प्रत संपादन का काम कर रहा था, उस समय यही प्रत सामने आयी. भाषा अंकमय होने तथा अंकपल्लवी लिपि के संकेताक्षरों का अनुभव न होने से मात्र पार्श्वजिन स्तवन-अंकपल्लीमय प्रत एवं कृतिनाम का उल्लेख कर सका। क्योंकि प्रतिलेखक ने अन्त में “इति श्री पार्श्वजिनस्तवनं संपूरणं" ऐसा लिखा था. प्रत एवं कृति संपूर्ण होते हुए भी पूर्ण व प्रामाणिक सूचना का उल्लेख नहीं कर पाया। इसका मलाल आज तक दिलो-दिमाग में गूंज रहा था। उपर्युक्त प्रतिलेखन पुष्पिका स्पष्टीकरण के बाद तुरंत इस कृति का स्मरण होने से उसका प्रकाशन करने हेतु सुसज्ज हुआ, जिसका परिणाम आज पाठक के करकमलों में उपस्थित है। आशा है यह अंकपल्लवीलिपिमय पार्श्वजिन स्तवन वाचक वर्ग को रोचक एवं बोधप्रद सिद्ध होगा। प्रत परिचय ___ यह प्रत स्थानीय ज्ञानभंडार श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार में प्रत क्रमांक-४६७१४ पर स्थित है। पत्रांक मात्र-१ है। पत्र के अ एवं आ भाग में १४-१४ पंक्तियाँ हैं। प्रत की किनारी सामान्य ट्टी है। पानी के कारण पत्र आंशिक विवर्ण हो गया है। फिर भी भौतिक स्थिति अच्छी है। सभी अंक सुवाच्य है। मंगलदर्शक चिह्न से प्रत का प्रारंभ होता है एवं अन्त में देवनागरी लिपिमय “इति श्रीपार्श्वजिनस्तवन संपूरणं” ऐसा उल्लेख मिलता है। प्रथम दृष्ट्या तो इसी से स्पष्ट हो पाता है कि इस प्रत में उक्त कृति है। इसके बाद प्रतिलेखन संवत् हेतु “८३११।७४।५१।८३।५१।७२८९” इस तरह से लिखा गया है। जिसका स्पष्ट संवत् इस प्रकार है-८३११=सं, ७४=व, ५१=त, ८३=स, ५१=त, ७२=र+८९ अर्थात् संवत् सतर=१७+८९=१७८९ ऐसा स्पष्ट होता है। इसके अतिरिक्त प्रतिलेखक ने अपने नाम, स्थलादि का कोई उल्लेख नहीं किया है। सबके अंत में अंकपल्लीकृतं स्तवनं । लिखावतं पत्रांतरे विलोक्य। विद्वान् स पुमान्। यादृशं तादृशं भवेत् ॥ १॥ शुभं भवतु दिने२। श्रीभव० लिखकर प्रत संपूर्ण किया गया है। यहाँ “पत्रांतरे विलोक्य” से यह स्पष्ट होता है कि यह पूर्व में किसी के द्वारा लिखी गई अंकपल्लवीलिपिबद्ध For Private and Personal Use Only

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