Book Title: Shrutsagar 2016 05 Volume 02 12
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारपालचरियं में घटित लक्षणा का स्वरूप जोली सांडेसरा (शोधछात्रा) जैसे कि हम जानते हैं, गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह का शासनकाल बौद्धिक गतिविधियों के लिए स्वर्णकाल माना जाता है। सिद्धराज जयसिंह ने हेमचन्द्राचार्य प्रभृति विद्वानों का एक बडा समूह अपने यहाँ रखा था, जिनका काम केवल विद्या अध्ययन और अध्यापन ही था। ___ हेमचन्द्राचार्य उनमें विद्वत् शिरोमणि थे। उन्होंने विद्या के विविध क्षेत्रों में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे। अलंकारशास्त्र, छंदःशास्त्र, व्याकरण, न्याय, दर्शन, महाकाव्य, कोष इत्यादि सभी क्षेत्रों में अपना योगदान दिया। ___कुमारपालचरित उनका एक ऐसा महाकाव्य है, जो प्राकृत में लिखा गया है और व्याकण के नियमों का पालन करते हुए महाकाव्य की कथावस्तु का प्रणयन किया गया है। इसलिए कुमारपालचरित को व्याश्रयमहाकाव्य कहा गया। व्याश्रयमहाकाव्य का अर्थ होता है जिसके दो आधार हैं। भट्टि कवि कृत भट्टिकाव्य के तर्ज पर इसकी रचना हुई है। एक तरफ प्राकृत भाषा के लक्षण दिए गये हैं, दूसरी तरफ कुमारपाल राजा का चरित वर्णित है। वैसे तो व्याश्रयमहाकाव्य में काव्यत्व कम ही दिखाई पड़ता है, क्योंकि काव्य में रस ध्वनि की प्रधानता होती है। व्याकरण के कारण उस रस ध्वनि का ह्रास हो जाता है, इसलिए व्याकरण संबंधी लक्षणों का प्रयोग काव्य में वर्जित माना जाता है। छोटे से विघ्न से भी रसभंग हो जाता है, इसलिए उसे काव्य दोष माना जाता है। इसके बावजूद कवि हेमचन्द्र ने कुमारपालचरित में कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं, जो लाक्षणिक हैं। लक्षणा में व्यञ्जना की अनिवार्य उपस्थिति होती है। व्यञ्जना के माध्यम से ही प्रयोजन प्रगट होता है। उसी प्रयोजनवती लक्षणा के उदाहरण को प्रस्तुत करने का यहाँ एक प्रयास किया गया है। 1. प्राकृत पाली विभाग, भाषा भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद For Private and Personal Use Only

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