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श्रुतसागर
मई-२०१६ शुद्धा लक्षणा -
४. रंजिअ-नर-सिंघेणं वंसिअ-सीहेण वाइओ वंसो। दाघत्त-दाह-हरणो छुह-धवले जिण-गुणे गाउं ॥२.७०॥
मुख्यार्थ- अमृत जैसे उज्ज्वल जिन गुणों को गाने के लिए नरसिंह कुमारपाल को खुश करनेवाले श्रेष्ठ बाँसुरीवादक पुरुष ने दाह से पीडित लोगों का दाह दूर करनेवाली बांसुरी बजाई।
मुख्यार्थ बाध- बाँसुरी बजने से लोगों के दाह दूर नहीं हो सकते।
लक्ष्यार्थ- बाँसुरीवादक ने ऐसी मधुर बाँसुरी बजाई कि बाँसुरी सुनकर लोग अपने सभी दुःख भूल गये और आनन्द की अनुभूति करने लगे।
प्रयोजन- बाँसुरीवादक की चतुराई बताना है।
यहाँ शुद्धा लक्षणा है। शुद्धा लक्षणा - ५. दाही अथोअ-कुसुमेहि सेहरं दिट्ठिएह बिम्बोट्ठि ॥३.६३॥ मुख्यार्थ- वह लवली बहुत फूलों द्वारा प्रेम से तुझे फूलों का मुकुट देगी। मुख्यार्थ बाध- लवली वनस्पति है, जौ फूलों का मुकुट नहीं दे सकती।
लक्ष्यार्थ- लवली लता पर फूलों का मुकुट बन सके इतने ज्यादा फूल खिलेंगे।
प्रयोजन- वसंत ऋतु का प्रारंभ हो चुका है। जिस में फूलों की अधिकता
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इसमें शुद्धा लक्षण लक्षणा है। शुद्धा लक्षणा - ६. गाअइ किल तस्स मिसा णवरि वसन्तस्स गिम्ह-सिरी॥४.७॥ मुख्यार्थ- उसके बहाने वसंत के बाद सच में ग्रीष्मश्री गा रही है। मुख्यार्थ बाध- ग्रीष्मश्री व्यक्ति नहीं है।
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