Book Title: Shrutsagar 2016 05 Volume 02 12
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर मई-२०१६ लक्षणा की परिभाषामुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितेथ प्रयोजनात् । अन्योर्थो लक्ष्यते यत् सा लक्षणारोपिता क्रिया॥९॥ - काव्यप्रकाश मुख्यार्थ का बाध होने पर और उस मुख्यार्थ के साथ अन्य अर्थ का सम्बन्ध होने से जिस शब्दशक्ति से अन्य अर्थ लक्षित होता है, वह लक्षणा कहलाती है। जो आरोपित व्यापार होता है, वह लक्षणा है। लक्षणा के भेद रूढा लक्षणा प्रयोजनवती लक्षणा शुद्धा प्रयोजनवती गौणी प्रयोजनवती उपादन शुद्धा लक्षण शुद्धा सारोपा गौणी साध्यवसानगौणी सारोपां शुद्धा साध्यवसान शुद्धा अब हम उपर्युक्त लक्षणा प्रकारों का द्वयाश्रय महाकाव्य में कहाँ व कैसे प्रयोग किया गया है वह देखते हैंशुद्धा लक्षणा - १. कउहा-मुह-मण्डणम्मि चन्दंमि ॥१.११॥ मुख्यार्थ- दिशाओं के मुख को चन्द्र सुशोभित करता था। ___ मुख्यार्थ बाध- दिशा सजीव नहीं हैं, जड हैं। इसलिए उसे मुख नहीं होता और चन्द्र उसे सुशोभित नहीं कर सकता। लक्ष्यार्थ- चन्द्र का सुंदर प्रकाश पृथ्वी पर पड़ रहा है। इस से रात्रि के समय पृथ्वी पर सभी दिशाओं की शोभा बढ़ रही है। For Private and Personal Use Only

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