Book Title: Shrutsagar 2015 09 Volume 01 04
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर सितम्बर-२०१५ भाषा का परिमार्जन भी किया गया है. जैनागमों, व्याख्याग्रन्थों तथा संगीतग्रन्थों में प्राप्त वर्णनों में परस्पर संवादिता न होने पर विमर्श भी प्रस्तुत किया गया है. उपयोगिता - यह ग्रन्थ विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के कार्य में बहुत बड़ा सहायक सिद्ध होता है. इस ग्रन्थ से विविध प्रचलित व अप्रचलित वाद्ययन्त्रों को समझने का अवसर तो मिलेगा ही, साथ ही अध्ययन व शोध के क्षेत्र में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान सिद्ध हो सकता है. इसकी विशिष्टता इसलिए और भी बढ़ जाती है, क्योंकि यह इस तरह का पहला संग्रह है और यह सुन्दर चित्रों के साथ प्रकाशित किया गया है. उदाहरण के लिए पृष्ठ १४ पर बांई ओर एक शब्द है- 'झल्लर'- उसके आगे कोष्ठक में उसकी संस्कृत छाया लिखा है-(झल्लरी), उसके आगे उसके प्रमाणस्थल का निर्देश है- 'राज०,७७; ठाणं०,७/४२; दसा० १०/१७; निसि० १७/७३६. उसके नीचे उसके अन्य पर्यायवाची नाम दिए गए हैं - झालर, झालरि, जयघंटा. उसका रंगीन चिल, उसके आकार का परिचय व उसका विवरण क्रमशः इस तरह दिया गया है. चक्राकार थाली, जो पीतल, जस्ते और तांबे के मिश्रण से बनाई जाती है. उसके नीचे उसका विवरण दिया गया है- 'आधुनिक युग में यह वाद्य प्रायः हिन्दु मन्दिरों में आरती के समय प्रयोग में लाया जाता है, जिसे जयघंटा कहा जाता है. संगीत रत्नाकर -६/११९०,११९१ के अनुसार जयघंटा कांसे का होता था, जो समतल, चिकना तथा गोल होता था. मोटाई आधी अंगुल के बराबर होती थी. उसके वृत्त के किनारे पर दो छिद्र होते थे, जिसमें डोरी डालकर लटकाने योग्य बना लिया जाता था. इसे बांए हाथ से पकड़कर दांए हाथ में कोई कठोर वस्तु लेकर बजाया जाता था. इसे लौकिक भाषा में झालरि अथवा झालर भी कहते थे. इसीका बृहद् रूप महाघंटा भी होता था, जो कांसे अथवा अष्टधातु से निर्मित किया जाता था. उसके नीचे विमर्श दिया गया है- 'संगीतसार, संगीत रत्नाकर और जैन टीकाकारों ने झल्लरि को चर्मावनद्ध वाद्य के अन्तर्गत लिया है. बहुत सम्भव है कि प्राचीनकाल में झल्लरि अनवद्ध एवं घनवाद्य दोनों रूपों में विकसित हो. इसलिए इसका घनवाद्य और अनवद्ध वाद्य के रूप में वर्णन किया गया है. सबसे नीचे स्पष्टता के लिए इसप्रकार लिखा है(विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य- संगीतसार, संगीत पारिजात.) परिशिष्टादि - इस पुस्तक के अन्त में तीन परिशिष्ट दिए गए हैं. पृ.४७ पर For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36