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September-2015 मुद्रित ग्रन्थों की भूमिका, प्रस्तावना एवं परिशिष्टादि में भी कभी-कभी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ पायी जाती हैं. इसीतरह कभी-कभी हस्तप्रत में स्थानाभाव एवं अन्य कारणों से प्रतिलेखक हासिये में भी एकाध लघु परन्तु महत्त्वपूर्ण कृतियाँ लिख देते थे. पेटांक पद्धति के माध्यम से इन्हें भी योग्य क्रम देकर टिप्पणी के द्वारा स्पष्टीकरण कर दिया जाता है, हमारे लिये एक श्लोक का भी उतना ही महत्त्व है जितना एक बड़ी एवं प्रस्थापित कृति का.
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पेटांक नाम सामान्यतया प्रकाशन में दिये कृति के शीर्षक एवं हस्तप्रत में प्रतिलेखक द्वारा दिये गए कृति के आरम्भ अथवा अंत के नाम को पेटांक नाम के रूप में प्रदर्शित किया जाता है.
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यह कृति के मुख्यनाम के अनुरूप ही होता है, परन्तु कभी-कभी मूल कृतिनाम के समानार्थी अथवा लोकप्रचलित नाम होते हैं. यदि मूल कृति पुत्र, पौत्रादि के साथ हो तो सह तथा यदि मूल कृति से रहित मात्र पुत्र-पौत्रादि कृति हो तो के, की आदि सम्बन्धसूचक शब्दों के साथ पेटांक नाम दर्शाया जाता है.
पेटांक नाम निर्धारण में हुंडी की उपयोगिता - हस्तप्रतों में कुछ प्रतिलेखक कृति का नाम प्रत के हासिये में बायीं ओर ऊपरी भाग में लिख देते हैं, जिसे हुंडी कहा जाता है. यह कभी संपूर्ण तो कभी सांकेतिक रूप से लिखा हुआ मिलता है, तो कभी छोटी-छोटी कृतियों के नाम विभिन्न पत्रों पर लिखा हुआ मिलता है, कभी सामूहिक नाम एक ही पत्र पर लिखा हुआ मिलता है. इससे पेटांक नाम एवं कृति नाम के निर्धारण में सहायता मिलती है.
पेटांक की पूर्णता - ग्रंथ में उपलब्ध कृति की पूर्णता के आधार पर पेटांक की पूर्णता मानी जाती है. सामान्यतया यदि कृति अपूर्ण है तो पेटांक अपूर्ण तथा कृति संपूर्ण है तो पेटांक संपूर्ण होता है.
लेकिन यदि पत्र में स्थान खाली होने पर भी प्रतिलेखक ने किसी कारण से कृति को अपूर्ण लिखकर छोड़ दिया हो तो वहाँ कृति अपूर्ण कही जाएगी, लेकिन पेटांक संपूर्ण माना जाएगा. स्पष्ट शब्दों में कहें तो कृति की अपूर्णता का कारण यदि मात्र पन की अनुपलब्धता हो तो ही पेटांक को अपूर्ण माना जाता है.
अपूर्णता का उल्लेख- उपलब्ध प्रत में कृति का कितना अंश है, उसका स्पष्ट 'रूप से उल्लेख किया जाता है. जैसे यदि किसी कृति का प्रारम्भिक भाग नहीं हो तो
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