Book Title: Shilopadesh Mala
Author(s): Harishankar Kalidas Shastri
Publisher: Jain Vidyashala

View full book text
Previous | Next

Page 414
________________ ४०६ शीलोपदेशमाला. प्रार्थयन् च श्रब्रह्म ब्रह्मापि न रोचते मां पबितो ये अंबंनं, बंभावि न रोचए मैंन । ए॥ शब्दार्थ- सर्वज्ञ प्रनु कहे जे के- (यदि के०) जो (गणी के) कायोत्सर्ग करनारो होय (जश के० ) जो (मोणी के०) वाणीने नियममा राखनारो होय (जश के०) जो (मुंडी के०) लोच करनार होय (वक्कली के०) जो जाडनी बालरूप वस्त्रने धारण करनार होय (तवस्सी के०) जो निरंतर तप करनार होय (वा के०) तेवं जाति अथवा कुल होय (च के०) पण (श्रबंनं के) मैथुननी (पडितो के०) प्रा. र्थना करनारो (बंगावि के०) ब्रह्मा होय तो ते पण (मन के०) मने (न रोचए के०) नथी रुचतो. ॥ ए ॥ विशेषार्थ- श्रीसर्वज्ञ प्रजु कदेडे के- गमे तो कायोत्सर्ग करनारो होय के, वाणीने नियममा राखनारो होय, गमे तो लोच करनारो होय के, फाडनी डालने पहेरनारो होय, वली निरंतर तप करनारो होय के तेवु को जाति के कुल होय जेवट ब्रह्मा पोते होय, परंतु जो ते मैथुननी प्रार्थना करनारो होय तो ते मने रुचतो नथी. तो सामान्य माणसनी तो वातज शी! वली मूल गाथामां वारंवार 'यदि' शब्द मूक्यो बे, तेथी सर्व गुणवालो माणस होय, परंतु शीलरहित होय तो ते कांश नथी, एवो अतिशय देखाडवामाटे . ॥ ए॥ __ सामान्य उपदेश कह्यो. हवे नाम बतावी ते उपदेश कहे . इति जावयन् जावं स्वयोगगुप्तः जितेंजियः धीरः इत्र नौवंतो नोवं, सजोगेंत्तो जिंदिन धीरो॥ रक्षति मुनिः गृहीअपि खलु निर्मलनिजशीलमाणिक्यं रकैश मुंणी गिदीवि दु, निम्मलनिअंसीलमाणिकं ॥एन॥ शब्दार्थ- (श्न के०) पूर्वे कहेला (जावं के०) जावने (जावंतो के) लावतो (सजोगकुत्तो के०) पोताना मन, वचन श्रने कायाने रोकनारो (जिदि के) जितेंजिय श्रने (धीरो के०) निश्चल चितवालो एवो (मुणी के०) मुनि अथवा (गिही वि के०) गृहस्थ पण (हु के०) निश्चे (निम्मल के०) मलरहित एवा (निश्रसीलमाणिकं

Loading...

Page Navigation
1 ... 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456