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शीलदूतम्
कोशा के साश्रु वचनों को सुनने के पश्चात् स्थूलभद्र कहता है -- हे सुन्दरि ! मैं जैन धर्म स्वीकार कर चुका हूँ। मेरा मन विपयों से विरक्त है। युवावस्था का सौन्दर्य वृद्धावस्था में नहीं रह जाता। यह जगत् अनित्य है। अतः मैं धर्म में ही अपना कल्याण समानता हूँ। नारी मेरे लिये विष तुल्य है। मैं वीतराग हूँ।
स्थूलभद्र का कथन सुन कर कोशा की सखी चतुरा इस प्रकार करती है -- हे सुभग ! क्या आप का हृदय इतना निर्दय हो गया है ? मेरी सखी पर आप को लेशमात्र भी दया नहीं आ रही है। इस ने कल्प के समान इतने दिन वियोग में रो-रो कर बिताये हैं और श्रृंगार का परित्याग कर दिया है। इसे सम्पूर्ण जगत् शून्य दिखाई देता है। दिवस तो व्यस्तता में किसी प्रकार कट जाते हैं परन्तु रात्रि की निस्तब्धता असह्य हो जाती है। यदि आप मेरा अनुरोध मान कर इस पर कृपा नहीं करेंगे और इस की अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं करेंगे तो यह अवश्य मर जायेगी।
चतुरा के वचन सुन कर स्थूलभद्र कोशा से पुनः कहता है -- आर्ये ! तुम जैन धर्म स्वीकार कर लो। मेरी दृष्टि में तण समूह और नारी-दोनों तुल्य हैं। जैन धर्म स्वीकार कर लेने पर तुम्हारे मन में कोई दुःख नहीं रह जायेगा। तुम शील का पालन करो, सत्पात्रों को दान दो और तप से आत्मशुद्धि करो।
प्रिय के इन उपदेशों से कोशा का अज्ञान विनष्ट हो जाता है। उस की भोगतृष्णा विगलित हो जाती है। वह भक्ति से स्थूलभद्र के चरणों में गिर कर कामवासना को दग्ध करने वाली दिव्यौषधि की याचना करती है। स्थूलभद्र कोशा को जैन धर्मोपदेश के साथ-साथ भवभयहारी नमस्कार-मन्त्र प्रदान करता है और स्वयं गुरु के निकट चला जाता है। वह सूरीश का पद प्राप्त कर आजीवन जैन धर्म का प्रचार करता है। अन्त में उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। कोशा घर में ही रह जाती है। जैन-धर्म की शिक्षाओं का पालन करती हुई वह भी स्वर्ग में प्रिय के पास पहुँच जाती है।
उपर्युक्त कथा में कहीं भी न तो दूत की कल्पना की गई है और न सन्देश ही भेजा गया है। नायक और नायिका का साक्षात् संवाद वर्णित है। शीलदूत और नेमिदूत
शीलदत और नेमिदत के वस्तुविन्यास और वर्णनों में पर्याप्त साम्य है। सखी की कल्पना दोनों काव्यों में है। नायिका का कथन समाप्त होने पर दोनों में समान रूप से सखी के द्वारा निवेदन कराया गया है। अलंकार योजना दृश्यविधान, पादपूर्ति पद्धति और वस्तु व्यापार वर्णन में साम्य होने पर भी दोनों का पार्थक्य स्पष्ट है। नेमिदूत में प्रणयोद्रेलित राजीमती स्वयं नेमिनाथ के निकट जाती है। शीलदूत का नायक निर्लिप्त एवं वीतराग स्थूलभद्र गुरु के आदेश से कोशा के निकट जाता है। नेमिदूत में नायक और नायिका का संवाद रैवतकपर्वत पर होता है। शीलदूत में दोनों अपने घर में मिलते हैं। नेमिदूत में नेमिनाथ राजीमती को मोक्ष मार्ग में
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