Book Title: Shildutam
Author(s): Charitrasundar Gani, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ से उस का मन मुदित हो उठा है और दीर्घकालीन विरह- जनित उष्ण अश्रु गिरा कर उस के उत्कृष्ट स्नेह की अभिव्यक्ति हो रही है। मा जानीष्व त्वमिति मतिमन् ! संयम मुंचतो में नाशं यास्यत्यवनिविदिता कीत्तिविस्फूतिरेषा। सिद्धिं याता पुनरपि यथा सिन्धुपूरः प्रदानैः क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्त्रोतसां घोपयुज्य ।। १३ ।। १३. हे बुद्धिमान् ! आप यह मत समझिये कि संयम को छोड़ देने से आप का यह विश्व-विख्यात यश-रूपी तेज नष्ट हो जायेगा। जिस प्रकार नदी का प्रवाह जल प्रदान करने के कारण क्षीण हो जाता है परन्तु सोतों के थोड़े-थोड़े जल को जोड़कर पुनः पूर्ण हो जाता है उसी प्रकार आप भी अभी संयम का त्याग करके कुछ समय के पश्चात् पुनः उस का पालन करें तो मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। जग्मुर्मुक्ति कति न भरताधाः समाराध्य दानं ? भुंजन भोगान् सुभग ! भव तद् दानधर्मोद्यतस्त्वम् । कीर्त्या मूर्तीस्त्वमपि सितयन स्वःधियां सिद्धिमेता दिदिङ् नागानां पथि परिहरन् स्थूलहस्तावलेपान् ।।१४।। १४. क्या दानधर्म की सम्यक् आराधना करके भरतादि कितने व्यक्ति मोक्ष नहीं प्राप्त कर चुके हैं ? अतः हे सुभग ! आप भी भोगो को भोगते हुये दानधर्म में उद्यत हो जाएँ। इस प्रकार कीर्ति से दिग्गजों की आकृतियों को शुभ्रतर बनाते हुये और मार्ग में स्वर्ग की सुन्दरियों के हाथों का प्रचुर भोजन त्यागते हुये आप भी मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। स्वामिन् ! सिंहासनमनुपमं त्वं प्रसद्याश्रयेदं नानारतद्युतिततिकृतस्फारचित्रं पवित्रम्। येन स्त्रिग्धं वपुरूपचितां कान्तिमापत्स्यते ते बहेणेव स्फुरिरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः।।१५।। १५. हे स्वामी ! आप विभिन्न प्रकार के रत्नों के प्रकाश से विस्तृत शोभा वाले पवित्र और अद्वितीय सिंहासन पर प्रसन्न होकर बैठिये, जिस से आप का मोहक शरीर मोर के पंख से विस्तृत शोभा वाले गोपवेशधारी भगवान् विष्णु के शरीर के समान कान्ति-पुंज को धारण कर लेगा। मन्ये जज्ञे कुलिशकठिनं तावकीनं हृदेत धस्मादस्मानपि नहि दशा स्त्रिग्धया पश्यसि त्वम् । पश्येयं त्यां वदति सरसं सारिका देव ! मा मा किंचित्पश्चाद् व्रज लघुगतिभूय एवोत्तरेण ।। १६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48