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केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना युत्तमेषु ? ।।१२४।। १२४. इस के अनन्तर वे चतुर सदाचारी वहाँ (कोशा के घर में) चातुर्गास व्यतीत कर गुरू के पास गये और प्रचुर भक्ति से उनका वन्दन किया। कोशा भी कल्याणकारी जैन धर्म को स्वीकार कर घर में रही। श्रेष्ठ जनों से की गई किस की प्रार्थना सफल नहीं होती ?
यात्वा पारं समयजलधेः स्थूलभद्रः स भेजे सूरीशत्वं भुवि जनमनो रजयामास कामम्। हित्वा तत्त्वामृततररसैः साऽपि चित्तं स्वमिद्धा
निष्टान् भोगानविरतसुखं भोजयामास शश्वत् ।।१२५।। १२५. स्थूल-भद्र ने समय- रूपी समुद्र के पार पहुँच कर श्रेष्ठ सूरि के पद को प्राप्त किया
और भूतल पर लोगों के मनों को अत्यधिक आनन्दित किया। वह कोशा भी इष्ट भोगों को त्याग कर अपने चित्त को तत्त्वामृत-रूपी रसों के द्वारा सदैव शाश्वत् सुख का आस्वादन कराती रही।
कुर्वन्नुर्वी वलयमखिलं जैनधर्माऽनुरक्तं व्यक्तं चित्रं विदधदतुलं शीलशक्त्या त्रिलोक्याम्। भूमीपीठे स्मरहठहरो दीर्घकालं विहारं
धके वक्रेतरमतिरसौ स्थूलभद्रो मुनीन्द्रः ।।१२६ ।। १२६. सम्पूर्ण धरातल को जैन धर्म में अनुरक्त करते हुये और शील की शक्ति से त्रिलोकी में स्फुट एवं अतुलनीय आश्चर्य उत्पन्न करते हुये उस काम के हठ को हरने वाले, ऋजुबुद्धि, मुनीन्द्र स्थूल- भद्र ने पृथ्वी पर दीर्घ काल तक बिहार किया।
सच्चारित्रं यतिपतिरसौ कर्मवल्लीलवित्रं दीर्घ कालं कलितविमलज्ञानदानः प्रपाल्य। भेजे स्वर्ग त्रिदशललनालोचनाब्जाकतुल्यो
निःशल्यान्तनिरुपमसुखं वीतनिःशेषदुःखम् ।।१२७।। १२७. जिनके हृदय में शोक नहीं रह गया था, जो देवकामिनियों के लोचा-कमल के लिये सूर्य के समान थे और जो विमल ज्ञान का दान देते रहते थे उन मुनीद्र स्थूल-भद्र ने कामरूपी लतापाश को काटने वाले लवित्र ( हसिया) के समान सदाचार का दीर्घ काल तक पालन कर उस स्वर्ग को प्राप्त किया जहाँ अनुपम सुख है और जहाँ समस्त दुःख समाप्त हो जाते हैं।
कोशाऽपि श्रीजिनमतरता शीलमाराध्य सम्यक पत्युः स्नेहादिव दिविषदां धाम सा साग जगाम। आपद् व्यापद्रहितमतुलं तत्र सातं विशेषा दत्राऽमुत्र प्रदिशति सुखं प्राणिनां जैनधर्मः ।।१२।।
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