Book Title: Shildutam
Author(s): Charitrasundar Gani, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 28
________________ अंगीकृत्य प्रियतम ! महामात्यमुद्रां सुभद्रां सान्द्रानन्दं कुरु निजपति नन्दनामानमेनम् । भूयाद् भूयस्तव जनकवत् शत्रुतृण्यावलीना मत्यादित्यं हुतवह ! मुखे संभृतं तद्धि तेजः।। ४७॥ ४७. हे प्रियतम ! कल्याण-जनक महामन्त्री के पद को अंगीकार करके अपने नन्द नामक स्वामी को अत्यधिक आनन्दित कर दें। हे शत्रु- रूपी तृण- समूह को भस्म करने वाले अग्नि ! आप के मुख पर सूर्य को भी तिरस्कृत करने वाला पिता के समान तेज पुनः संचित हो जाये। क्षामं कामं तव वपुरभूत तत्र तीवैस्तपोभिभक्त्या क्लुप्तं प्रियतम ! मया भोजनं तत् कुरु प्राक् । दक्षा नाट्ये जितसुरबधूनर्तकीमर्दलानां पश्चादद्रिग्रहणगुरुभिर्जितैनत्तयथाः ।। ४।। ४८. प्रिय ! वहाँ तीव्र तपों से आप का शरीर क्षीण हो गया है अतः पहले भक्ति-पूर्वक मेरे द्वारा रचित भोजन ग्रहण करें। उसके पश्चात् पर्वतों में प्रतिध्वनित होने के कारण गम्भीर मुदंग ध्वनियों के द्वरा देवांगनाओं को जीतने वाली नाट्य कला में प्रवीण नर्तकियों को नचाऐं। पुण्याय त्वं स्पृहयसितरां तत् परं नोपकारात् स स्यात्यायः प्रियवर ! सरः कूपवापीविधानैः ? कुर्याः श्रेयः प्रतिदिनमिदं तद् गृहस्थोऽपि लुम्पन्। स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम् ।।49।। ४६. हे प्रियवर ! आप अत्यन्त पुण्य के लिये इच्छा कर रहे हैं। वह पुण्य परोपकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और वह उपकार सरोवर , कूप और वापी के निर्माण से होता है। अतः गृह में रह कर भी पृथ्वी पर स्रोत के रूप में परिणत रन्ति देव की कीर्ति को लुप्त करते हुये इस कल्याणकारी कार्य को करें। यं तातस्ते पुरहितकृतेऽकारयच्छिल्पिसारैः प्राकारं तं स्फटिकघटितं नाथ ! पश्याभ्रलग्नम् यं वीक्षन्ते दिवि दिविषदो नीलवेषायुतं श्रा गेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम् ।।५।। ५०. नाथ ! नगर की रक्षा के लिये आप के पिता ने कुशल शिल्पियों के द्वारा जिसे बनवाया था। उस आकाश को छूने वाले स्फटिक-रचित प्राचीर को देखिये। उस प्राचीर को आकाशस्थ देवता पृथ्वी की उस मौक्तिक माला के समान देखते हैं जिस के मध्य में स्थूल (बड़ा) इन्द्रनील मणि सुशोभित हो। कामो वामं रघयतितरां यौवने नाथ ! चित्तं योगाभ्यासोद्यतमतिभृतां योगिनामप्यवश्यम्। अंगीकुर्या वयसि घरमे धर्मभेदानतः स्वं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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