Book Title: Shildutam
Author(s): Charitrasundar Gani, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 29
________________ 24 पात्रीकुर्वन् दशपुरवधूनेत्रकौतुहलानाम् ।। ५१ । । ५१. हे नाथ ! युवावस्था में योगाभ्यास में प्रवृत्त बुद्धि वाले योगियों के भी चित्त को काम विपरीत बना देता है | अतः आप दशपुर की बधुओं के नेत्रों की उत्कण्ठा के विषय बन कर वृद्धावस्था में धर्म को स्वीकार करें । औदासीन्यं परिहर ततः साम्प्रतं कातराई निश्चिन्तं तं कुरु निजपतिं वैरिवारं विजित्य । युद्धे किं न स्मरसि धनवद् वैरिणां तं पिता यद्वारापातैस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षद् मुखानि ? ।। ५२ ।। ५२. तो अब कायरों के लिये उचित उदासीनता को छोड़ दें। शत्रु समुदाय को जीत कर अपने उस स्वामी (राजा) को निश्चिन्त कर दें। क्या आप को स्मरण नहीं है कि जैसे मेघ धारारूप में आपके ऊपर जल की वृष्टि करता है उसी प्रकार आप के पिता ने युद्ध में शत्रुओं के (छिन्न) मुखों (शिरों) की वर्षा की थी । सीदन्तं किं सदयहृदयोपेक्षसे बन्धुवर्ग वाञ्छन् शुद्धिं त्वमिह विविधैर्दुस्तपैस्तैस्तपोभिः ? दत्तैः पात्रे सततममले गेहिधर्मे स्ववित्तै रन्तः शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः ।। ५३ ।। शीलदूतम् ५३. हे दयालु हृदय ! आप इस संसार में विविध दुष्कर तपों से शुद्धि चाहते हुये, अपने दुखी कुटुम्बियों की उपेक्षा क्यों कर रहे है। गृहस्थ-धर्म में निरन्तर सुपात्र को दान देकर भी आप का अन्तःकरण पवित्र हो जायेगा । आप केवल वर्ण से श्याम रह जायेंगे । Jain Education International रत्वाssवाभ्यां चिरमुपवने जातगात्रश्रमाभ्यां सस्ने यत्र प्रिय ! कलजला स्वर्धुनी भाति सेयम् । मुक्त्वा मां किं भ्रमसि भुवि येतीव फेर्नैर्हसन्ती शम्भोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्रोर्मिहस्ता ।। ५४ । ५४. उपवन में चिरकाल तक रमण करने के पश्चात् थक कर जहाँ हम दोनों ने स्नान किया था यह वही रम्यसलिला गंगा शोभित हो रही है, जिसने "मुझे त्याग कर भूतल पर क्यों भ्रमण करते रहते हो।" मानों इस प्रकार कह कर फेनों के द्वरा हँसते हुये, तरंगरूपी हाथों को चन्द्रमा पर लगा कर शिव का केश पकड़ लिया था । अस्यां शस्याशय ! यदि भवान् नीरकेलिं प्रकुर्याद् युक्तस्ताभिः प्रिय ! सह मया मद्रयस्याभिराभिः । धौतैरासां मृगमदभरैः कज्जलैर्वा तदेषा स्यादस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा ।। ५५ ।। ५५. हे सुन्दर अभिप्राय वाले प्रिय ! यदि इस में उन लहरियों से युत होकर आप मेरी संखियों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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