Book Title: Shildutam
Author(s): Charitrasundar Gani, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 31
________________ 26 शीलदूतम् क्रीडाशैलं प्रिय ! भज निजं तं विनोदाय यस्मिन् शब्दायन्ते मधुरमनिशं कीधका वायुयोगात्। नादशस्यालमिव तव सत्किन्नरीगीतनृत्यैः संगीतार्थो ननु पशुपतेस्तत्र भावी समग्रः ।। ६०। ६०. हे नाथ ! विनोद के लिये अपने उस क्रीडा- पर्वत का सेवन कीजिये जहाँ वायु के संयोग से कीचक नामक छिद्रयुक्त बाँस सतत ध्वनित होते रहते है। (वहाँ) शिव के समान नाद के विशेषज्ञ आप के संगीत के सभी अंग किन्नरियों के सुन्दर गीतों और नृत्यों से पूर्ण हो जायेंगे। हित्वा स्वादिं जिनपतिमहाचैत्यपूते प्रभूते स्त्रीभिः सा विबुधनिधया यत्र खेलन्ति नाथ । तिर्यग्व्याप्यञ्जनगिरिरिवानं गतो भ्राजते यः श्यामः पादो बलिनियमनाऽभ्युद्यतस्येव विष्णों ।। ६१॥ ६१. हे नाथ ! बहुत से जिन-मन्दिरों से पवित्र जिस क्रीडा- पर्वत पर देवगण सुमेरु पर्वत को छोड़ कर स्त्रियों के साथ विहार करते हैं और जो अंजन-गिरि के समान तिर्यक् (तिरछा ) फैल कर आकाश में पहुँच गया है वह (क्रीडापर्वत) बलि को नियन्त्रित करने के लिये उद्यत विष्णु के श्यामल चरण के समान दीप्त हो रहा है। शैले लीलागृहमिह महत कारितं तेऽस्ति पित्रा तस्मिन् वासं कुरु वर ! चिरं घेद्रति! तवाऽत्र। श्वेतज्योतिः स्फटिकमणिभिर्निर्मितं भ्राजते य द्राशीभूतः प्रतिदिनामिव त्र्यम्बकस्याट्टहासः ।।६।। ६२. हे पतिदेव ! यदि यहाँ आप का मन नहीं लगता है तो इस शैल पर आपके पिता के द्वारा बनवाया हुआ महान् लीला-गृह है, उस में निवास कीजिये। वह स्फटिक मणि से निर्मित श्वेतकान्ति भवन ऐसा लगता है जैसे शिव के प्रत्येक दिन के अट्टाहास का ढेर लग गया हो। त्वय्यास्टे रजतरचितं सारमुच्चगवाक्षं देहच्छायाजितहरिरुचौ घारु कृत्वा विनोदान्। पश्यत्वेष प्रिय ! परिजनः साधु सौधस्य शोभा मंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव ।। ६३ ।। ६३. नाथ ! देह की कान्ति से विष्णु की छवि को जीतने वाले आप जब सुन्दर विनोद करके रजतरचित श्रेष्ठ गवाक्ष (खिड़की) पर आस्ट होंगे तब ये परिजन बलराम के कन्धे पर न्यस्त नीलाम्बर के समान प्रासाद की उत्तम शोभा देखेंगे। तस्मिन्नद्रौ भवभयहरं नाभिजन्मानमीशं नत्वा देवं तदनु सुभगाssलोकयेः कौतुकानि। आयान्त्या मे भवदनु पुनर्वर्त्म कुर्वन् सुगम्यं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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