Book Title: Shildutam
Author(s): Charitrasundar Gani, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 23
________________ शीलदूतम् आयाभावात् त्वयि सति गते बान्धवास्तेऽस्तवित्ताः संपत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशाः ।।२५।। २५. हे प्रिय ! पिता के स्वर्ग चले जाने पर जो आप की आशा में बँध कर जी रहे हैं उन्हें छोड़ते हुये क्यों लज्जित नहीं हो रहे हैं ? आप के चले जाने पर आय के अभाव में जिन का धन नष्ट हो जायेगा उन दस व्यक्तियों के ऋणी बान्धवों के प्राण कतिपय दिनों तक ही ठहर पायेंगे। भुड्क्ते भोगान् किमिह न भवान् नन्दिषणोऽपि तस्थौ ? वेश्याsवासे चिरविरचितं प्रोज्झ्य चारित्रमुच्चैः। मुहयेत् को नो शुचि सुललितं वीक्ष्य वा वारनार्याः सभ्रूभंग मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्यलोमि ? ।। २६।। २६. आप भोगों का उपभोग क्यों नहीं करते हैं ? नन्दिपेण भी दीर्घकाल से रचित चारित्र्य का त्याग कर वेश्या के घर में ठहर गये थे। बेतवा के चंचल तरंगयुक्त जल के समान वारवनिता के भूभंगयुक्त स्वच्छ और सुललित मुख को देख कर कौन मोहित नहीं हो जाता है? क्रीडाशैलो वर ! गुरुरयं राजते ते पुरस्ताघ्चक्रे केलिः किल सह मया यत्र चित्रा त्वया प्राक। स्त्रिग्धच्छायैर्विमलसलिलैः सत्फलैर्यो जनाना मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभियौवनानि ।। २७॥ २७. हे पतिदेव ! यह विशाल क्रीडा- पर्वत आप के समक्ष शोभित है जहाँ पहले आप ने मेरे साथ विचित्र क्रीडायें की थीं और जो स्निग्ध छाया विशुद्ध जल और सुन्दर फलों वाले शिलागृहों के द्वारा मनुष्यों के उत्कट यौवन को उद्दीप्त कर देता है। अस्मिन् सान्द्रद्रुमर्याचते पर्वत वर्तते ते क्रीडोद्यानं सुरवनसमं नाथ ! सर्वर्तुकाख्यम्। स्वेदं शीतो हरति सुरभिः संमतो यत्र वायु श्छायाSSदानात् क्षणपरिधितः पुष्पलावीमुखानाम् ।। २८॥ २८. हे नाथ सघन वनों से व्याप्त इस पर्वत पर नन्दन वन के समान सर्वतुक नामक आप का क्रीडोद्यान है जहाँ वृक्षों की छाया ग्रहण करने के कारण क्षण भर में परिचित हो जाने वाला सुगन्धित, प्रिय और शीतल वायु पुष्प चुनने वाली कामिनियों के मुखों का स्वेद हर लेता है। स्वामिन्नस्मिन् स्मरगृहसमे कानने तावकीने कामक्रीडां विदधति समं निर्जराः सुन्दरीभिः । स्नेहस्निग्धस्त्वमिह रतिदैवींक्षितोऽपि प्रियाणां लोलापांगैयदि न रमसे लोधनैर्वधितोऽसि।।२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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