Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8 Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 5
________________ ४४ ३ विषय विषय प्रतिबिम्ब जीव का बिम्ब शुद्ध चैतन्य २६ जीवचैतन्य-विषय चैतन्य में अभेद अवश्य अज्ञान विशिष्ट चैतन्य ही जीव-वाचस्पति २६ मन्तव्य अज्ञान में आभासित चैतन्याभिन्न चैतन्य ही वृत्तिबहिनिर्गमन के अन्य प्रयोजन की जोष है-माभासबाद .... ..... ३० आशंका मादर्श में अन्य मुखोत्पत्ति नहीं होतो लोहित्य-अपरोक्षता की तरह घट अपरोक्षता । प्रतिबिम्बवाव ३२ की उपपत्ति की आशंका ..... ४५ भ्रमाधिष्ठान मुख नहीं, आदर्श है-शंका ३२ वृत्ति का प्रयोजन-मतान्तर .... ४६ सोपाधिक-निरूपाधिक भ्रमविभाग उच्छेद अभेदापत्ति पर पुनः आक्षेप-समाधान ४६ की आपत्ति-समाधान में अग्नि कीपरोक्षता की उपपत्ति ४७ प्रत्यभिज्ञा होने पर भी उपाधि भ्रमस्थल में इदमंश की अपरोक्षता ४० भेदाध्यास .... .... ३३ अनिर्वचनीय रजतसंसर्ग की उत्पत्ति पर जीय संस्था का है आक्षेप-समाधान हिरण्य गर्भादि की उपासना के सूचक रजताकारवृत्ति अनावश्यक का आक्षेप ४६ शास्त्र वचनों की उपपत्ति , की आश्यकता का समर्थन ४६ सालोक्यादि चार मेव से क्रममुक्ति अज्ञानादि के भान के लिए वृत्ति अनावश्यक सायुज्य-उपास्य के देह में सहावस्थान (१) ३६ मतान्तर , -अधिकशक्ति संपन्नलिंगशरीर विषय विशेषज्ञान दशा में समस्त विषय प्राप्ति (२) .... .... ३६ ।। विशेषित अज्ञान का भान स्वीकार्य , -दूसरे स्वरूप में किसी की एक का शुक्तिरजतस्थल में वृत्ति आवश्यक ५१ अयस्थान (३) घटसाक्षात्कारवत्ति शरीराच्छेदेन क्यों? ५३ , -अपरिच्छिन्न लिंग की प्राप्ति (४) ३७ ईश्वर में सर्षाकार एफ मायावृत्ति का । - के साथ तादात्म्य (५)३७ स्वीकार .... ५३ उपास्य-उपासक का अनिर्वचनीय रजतवृत्ति की अपेक्षा, देहपर्यन्त मज्ञानादि तादात्म्य (६) सिद्धान्तमत ३८ की नहीं उपासना के परिपाक-अपरिपाक शरीर केवलसाक्षिवेद्य कसे? ... अपूर्णता के विविध प्रभाव .... ३८ भिन्न भिन्न रूप से जीव ब्रह्म में अध्यस्त ५४ उपाधिभूत अज्ञान एक होने से जोवैक्य ३९ साक्षित्व में उपाधि अज्ञान या अन्त:करण ? ५५ 'अहं' बुद्धि का उत्पादक अन्तःकरणाध्यास ४० साक्षि अज्ञानादि के स्फुरण में नहीं, स्मरण अज्ञानादि की प्रतीति तदुपहित चैतन्यरूप में प्रयोजक .... .... साक्षिसे .... ४१ सुषुप्ति में प्राज्ञ-आनन्दमय अवस्था ईश्वर और जोव के प्रति घटादि की अपरो प्राणमयादि तीन कोशों की कार्य प्रक्रिया ५७ क्षता का उपपादान .... ..... ४२ समष्टि लिग और उपासना का फल अपरिच्छिन्न जीव पक्ष में घटादि को अपरोक्षता ४३ व्यष्टि लिग-विराट आदि बहुभेव ५८ अन्तःकरणवृत्ति के साथ जीव संबंध का पंच भूत, पंच इन्द्रिय, वाग् आदि प्रपंच ५६ स्पष्टीकरण ४३ श्रोत्रेन्द्रिय आकाशरूप नहीं है ..... ५६Page Navigation
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