Book Title: Sharir Ka Rup aur Karm Author(s): Anandprasad Jain Publisher: Akhil Vishva Jain Mission View full book textPage 2
________________ परिचय "जीवन और · विश्व के परिवर्तनों का रहस्य' शीर्षक मेरा लेख (अक्टूबर-नवम्बर, १६४६ के) "अनेकान्त' में प्रकाशित हो चुका था। उसीमें की एक कमी की आंशिक पूर्तिस्वरूप यह लेख-"शरीर का रूप और कर्म' लिखा गया। नब तक "अनेकान्त" * का प्रकाशन सहसा बन्द हो जाने पर “जैन सिद्धान्त भास्कर" के सम्पादक का पत्र कोई लेख भेजने के लिए मिला। मैंने यही लेख उनके पास भेज दिया जो "भास्कर" के जून १९५० के अंक में प्रकाशित हुआ। उपरोक्त दोनों लेख संक्षेप में आधुनिक विज्ञान की प्राणविक या परमाणविक विचार धारा (Atomic or Electronic Theory) मे मेल रखते हुए जैनियों के “कर्म सिद्धान्त" (Karma Philosophy) को पूर्ण रूप से सिद्ध करते हैं। विद्वानों का कर्तव्य है कि इस विषय का और अधिक विवेचना तथा खोज ढूढ़ द्वारा संसार में हर श्राधुनिक उपायों से व्यापक प्रचार करें। इसी ध्येय को लेकर करीब दो वर्ष हुए मैंने इसी विषय पर एक पुस्तक अंगरेजी में भी लिखा पर वह विशेष कारणों से अभी तक फाइल में ही पड़ा हुआ है, प्रकाशित नहीं हो सका। ___ संसार में शुद्ध जानकारी (ज्ञान) का बड़ा अभाव है। उसमें भी प्रमाद और धर्मा धता ने और गजब कर रखा है । संभवतः इस छोटे से लेख"शरीर का रूप और कर्म" से सच्चे ज्ञान के जिज्ञासुओं का कुछ समाधान हो सके ऐसा विचार कर इसे थोड़े संशोधन के साथ पुनः पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया, आशा है यह विद्वानों का ध्यान आकर्षित करेगा। अनन्त प्रसाद जैन देवेन्द्र नाथ दास लेन पटना-४ ता० १७-३-५३ * अब पुनः प्रकाशित होने लगा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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