Book Title: Sharir Ka Rup aur Karm
Author(s): Anandprasad Jain
Publisher: Akhil Vishva Jain Mission
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R २१२५ शरीर का रूप और कर्म ( एक वैज्ञानिक विवेचना ) लेखक अनन्त प्रसाद जैन “लोकपाल" बी०एस-सी. (इंजिनियरिंग) अखिल विश्व जैन मिशन अलीगंज, एटा, उत्तरप्रदेश के लिए संयोजक–पटना केन्द्र ने प्रकाशित किया प्रथमवार पटना १७ मार्च, १९५३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय "जीवन और · विश्व के परिवर्तनों का रहस्य' शीर्षक मेरा लेख (अक्टूबर-नवम्बर, १६४६ के) "अनेकान्त' में प्रकाशित हो चुका था। उसीमें की एक कमी की आंशिक पूर्तिस्वरूप यह लेख-"शरीर का रूप और कर्म' लिखा गया। नब तक "अनेकान्त" * का प्रकाशन सहसा बन्द हो जाने पर “जैन सिद्धान्त भास्कर" के सम्पादक का पत्र कोई लेख भेजने के लिए मिला। मैंने यही लेख उनके पास भेज दिया जो "भास्कर" के जून १९५० के अंक में प्रकाशित हुआ। उपरोक्त दोनों लेख संक्षेप में आधुनिक विज्ञान की प्राणविक या परमाणविक विचार धारा (Atomic or Electronic Theory) मे मेल रखते हुए जैनियों के “कर्म सिद्धान्त" (Karma Philosophy) को पूर्ण रूप से सिद्ध करते हैं। विद्वानों का कर्तव्य है कि इस विषय का और अधिक विवेचना तथा खोज ढूढ़ द्वारा संसार में हर श्राधुनिक उपायों से व्यापक प्रचार करें। इसी ध्येय को लेकर करीब दो वर्ष हुए मैंने इसी विषय पर एक पुस्तक अंगरेजी में भी लिखा पर वह विशेष कारणों से अभी तक फाइल में ही पड़ा हुआ है, प्रकाशित नहीं हो सका। ___ संसार में शुद्ध जानकारी (ज्ञान) का बड़ा अभाव है। उसमें भी प्रमाद और धर्मा धता ने और गजब कर रखा है । संभवतः इस छोटे से लेख"शरीर का रूप और कर्म" से सच्चे ज्ञान के जिज्ञासुओं का कुछ समाधान हो सके ऐसा विचार कर इसे थोड़े संशोधन के साथ पुनः पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया, आशा है यह विद्वानों का ध्यान आकर्षित करेगा। अनन्त प्रसाद जैन देवेन्द्र नाथ दास लेन पटना-४ ता० १७-३-५३ * अब पुनः प्रकाशित होने लगा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर का रूप और वर्म (एक वैज्ञानिक विवेचन) [ लेखक :-अनन्त प्रसाद जैन, B.Sc. (Eng.)] किसी वस्तु का बाह्याकार मौलीक्यूलों का एक महान समुदाय, संगठन या एकत्रीकरण है। मौलीक्यूल ही किसी वस्तु का छोटा-से-छोटा वह अविभाज्य भाग है, जिसमें वस्तु के सारे गुण पूर्णरूप से विद्यमान रहते हैं। ये छोटे-छोटे मौलीक्यूल मिलकर पिण्डरूप हो किसी वस्तु के आकार और रूप का निर्माण करते हैं। मौलीक्यूल को जैन शास्त्रों में “वर्गणा” नाम दिया गया है। मोलीक्यूलों को ही गुण और प्रभाव के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभाजित करने से “वर्गणा" कहा गया है। एटम (Atom, मूलस्कंध या मूलसंघ) भी एक प्रारंभिक प्रकार की वर्गणा ही है। इलेक्ट्रन, प्रोटन और न्यूटन इत्यादि को जो एटम या मौलीक्यूल का सृजन या निर्माण करते हैं हम अंग्रेजी में "electric particles" और हिन्दी में “विद्यु तकण" कह सकते हैं। इन्ही 'विद्यु तकणों' को “परमाणु" भी कहते हैं। जैन शास्त्रों में इनका एकमात्र नाम “पुद्गल” रखा गया है। इन “पुद्गलो" के मिलने से "वर्गणाएँ" बनती हैं। हर एक मौलीक्यूल ( Molecule ) का गुण, असर प्रकृति या प्रभाव सब उसको आंतरिक संगठन एवं बनावट के ऊपर निर्भर करते हैं। किसी भी वस्तु के किसी ऐटम या मौलीक्यूल के अन्दर इलेक्ट्रन (Electron), प्रोटन (Proton) और न्यूटन (Neutron) इत्यादि परमाणुओं की कमवेश संख्या एवं पारस्परिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ( २ ) मिलावट, स्थिति, मेल अथवा संगठन एक विशेष निश्चित रूप में ही होते हैं। इनमें से किसी एक में भी फर्क पड़ जाने से या कम-वेश होने या जरा भी इधर उधर होने से उस मौलीक्यूल के गुण असर, और प्रकृति सब में तबदीली आ जाती है। वह मौलीक्यूल उस वस्तु का मौलोक्यूल न रह कर दूसरी वस्तु के मौलीक्यूल में परिवर्तित हो जाता है । मौलीक्यूल वर्गणा का परिवर्तन होना ही वस्तु का परिवर्तन होना है। एक वर्गणा के अन्दर विभिन्न पुद्गलों की संख्या, उनका स्थान, उनकी आपसी दूरी एवं संगठन आदि सब कुछ निश्चित होता है। इन्हीं की समानता के ऊपर वस्तुओं के गुणों की समानता एवं विषमता के ऊपर वस्तुओं की विषमता निर्भर रहती है। किसी भी वर्गणा के अन्दर किसी भी उपरोक्त कथित व्योरा में किसी एक में भी जरा भी हेर-फेर होने से वर्गणा में परिवर्तन होकर उसके गुण, प्रभाव, रूप, प्रकृति (Properties, Characteristics and nature) सब में परिवर्तन हो जाता है और वस्तु बदल कर दूसरी वस्तु हो जाती है। यह बात, स्थिति और क्रम आधुनिक रसायन विज्ञान (Chemistry) द्वारा पूर्णरूप से सिद्ध, स्थापित एवं दिग्दर्शित हो चुकी है और रोज ही व्यवहार तथा क्रियाप्रक्रियाओं में देखने में आती है। ___हर एक क्रिस्टल के रूप, गुण रंग वगैरह उसकी वर्गणाओं की बनावट के ऊपर ही निर्भर करते हैं। क्रिस्टल ही क्यों, संसार की सारी वस्तुओं के रूप और गुणादिक की विभिन्नता का कारण भी उनको बनाने वाले मौलीक्यूलों (वर्गणाओं) की बनावट की विभिन्नता ही है। संसार में जितने प्रकार, किस्म या तरह की वस्तुएँ हैं उतनी ही संख्या वर्गणाओं के प्रकारों की भी हैं। ये असंख्य, अगणित और अनंत हैं। किसी भी जीव का शरीर अनंत प्रकार की वर्गणाओं (molecules of matter) की अनंतानंत संख्याओं का सम्मिलित संगठन, समुदाय या संघ है। मानव का शरीर तो सबसे अधिक विचित्र होने से इसको बनाने वाली “वर्गणाओं" (classified Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ molecules) की विविधता सबसे अधिक और संख्यातीत है। किसी वस्तु की आन्तरिक बनावट के ऊपर ही उसका रूप, गुण और क्रिया-प्रक्रिया इत्यादि निर्भर करते हैं। मनुष्य शरीर के लिए भी यह बात उतनी ही दृढ़ता एवं सत्यता के साथ लागू है जितनी कि किसी दूसरी बेजान वस्तु (chemical substance) के साथ। विजली वाले यन्त्र अपनी बनावट की विभिन्नता, छोटाई-बड़ाई, रूप, आकार, अंदरूनी अंग प्रत्यंग का गठन एवं हर एक छोटे-मोटे विभेद के अनुसार ही भिन्न-भिन्न कार्य संपादन करते हैं। विद्युत शक्ति या विजली का प्रवाह सब में एक ही तरह का होता है। केवल बनावट की विभिन्नता के कारण ही कार्य, असर एवं व्यवहार अलग-अलग विभिन्नता लिए हुए होते हैं। स्टीम या भाप से चलने वाले यन्त्रों और मशीनों के साथ भी यही बात है। बिजली या स्टीम (भाप) स्वयं कुछ नहीं करते न उनके यन्त्र ही स्वयं अकेले कुछ करते हैं--पर यन्त्र और शक्ति दोनों के संयोग से ही सब कुछ होने लगता है। आत्मा और शरीर के साथ भी यही बात है। यदि किसी पानी से भरे घड़े में एक छोटा छेद किया जाय तो पानी पतली धार में एक छेद से ही निकलेगा। छेद यदि बड़ा कर दिया जाय तो धार मोटी हो जायगी और यदि कई छेद कर दिए जायं तो उनके अनुसार ही मोटी पतली पानी की धाराएं उतनी ही संख्या में निकलेंगी। किसी छेद में ऐसी "टोंटी" लगादें जिससे टेढ़ी या दूर तक जाने वाली या किसी भी दूसरी तरह की धारा जैसी चाहें निकलती हो तो यह उस टोंटी की बनाक्ट और घड़े में युक्त करने के तरीके के ऊपर निर्भर करती है, इत्यादि। यदि एक मनुष्य को किसी जानवर की खाल में इस तरह बन्द कर दिया जाय कि उसके हाथ पैर खाल के हाथ पैर की जगहों में हो तो उस मनुष्य की चालअपनी न रह कर उस जानवर की ही समानता करेगी, जिसकी खाल होगी। एक बैल का शरीर ऐसा है कि सजीव होने पर वह एक खास तरह के ही कर्म कर सकता है, दूसरे तरह के नहीं। यही बात दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानवरों या जीवों के साथ भी है। एक पक्षी के पंख यदि कमजोर हैं तो वह अधिक नहीं उड़ सकता है। जिस व्यक्ति की बाहें मजबूत होंगी वह अधिक बोझ उठा सकता है बनिस्वत उस मनुष्य के जिसकी बाहें कमजोर होंगी। मनुष्य की हर एक शारीरिक क्रिया उसके अवयवों की बनावट के ऊपर ही निर्भर करती है। जिस अवयव या अंग या भाग का जैसा संगठन होगा उस अवयव द्वारा उसी अनुसार कार्य होगा। एक लंगड़े से किसी शुद्ध पैर वाले के समान सीधा चलना नहीं हो सकता। जिस अंग में कमी होगी उसका असर उस अंग के संचालन और क्रिया कलाप पर पूर्ण रूप से दृष्टिगोचर होगा। ये अंग क्या हैं ? ये सभी “वर्गणाओं" के समूह द्वारा ही निर्मित हैं-वर्गणाओं का संगठन जैसा हुआ इनकी बनावट, रूप और गुण-कर्म में भी वैसी ही विशेषता आ गई। यह बात अन्यथा कैसे हो सकती है कमजोरपना या सशक्तपना इत्यादि भी वर्गणाओं की बनावट के अनुसार ही होते हैं, कम-वेश या जैसे भी हों। यहाँ तो केवल दो एक जानवरों का दृष्टान्त दिया। किसी भी जीवधारी के शरीर की बनावट उसकी क्रियाओं और चाल-ढाल (movements) को सीमित कर देती है। एक और उदाहरण लीजिए-थोड़ी देर के लिए यदि मान लिया जाय कि किसी घोड़े के मुर्दे शरीर में किसी मानव की आत्मा का संचार किसी प्रकार कर दिया गया तो क्या वह पुनः जी उठने पर घोड़े के कार्य या कर्म ही करेगा कि मनुष्य के ? उत्तर एकदम सीधा है कि उसके शरीर की बनावट और गठन हो ऐसे हैं कि वह मानवोचित कुछ कर ही नहीं सकता, उससे तो केवल घोड़े के ही कर्म होंगे। यदि थोड़ी देर के लिए यह भी मान लिया जाय कि जो मनुष्य जीव उस में घुसा उसका मन एवं बुद्धि भी ज्यों की त्यों है तब भी केवल समझदारी में कुछ विशेषता आ सकती है पर अंगों का हलन-चलन या उनसे होने वाले काम तो वे ही होंगे जो उस घोड़े के शरीर द्वारा संभव है। जैसे बैल और घोड़े के अंग संचालन, कार्य कलाप, स्वभाव इत्यादि . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके शरीरों की बनावटों के अनुरूप ही होते हैं उसी तरह किसी दूसरे पशु जैसे कुत्ता, बिल्ली, हिरन अथवा कोई पक्षी, छोटे-छोटे कीट पतंग, पेड़ पौधे इत्यादि सभी अलग-अलग अपने-अपने अंगों की बनावट या शरीर की रूप रेखा आकृति और गठन के अनुसार ही कर्म कर सकते हैं और इसी कारण हरएक का अलग-अलग निश्चि स्वभाव है। मनुष्य शरीर में भी अवयवों की बनावट तथा मन, बुद्धि इत्यादि की वर्गणा-निर्मित रूपरेखा के ऊपर ही किसी भी व्यक्ति के कार्य संपादन की शक्ति, योग्यता, क्षमता एवं तौर-तरीका या उस अवयव और अंगोपांग के हलन-चलन निर्भर करते हैं। किन्हीं भी दो व्यक्ति की भीतरी या बाहरी समानता उनकी वर्गणाओं के संगठन की समानता के कारण ही है। कोई दो मानव जितने-जितने एक दूसरे के समान होंगे उनकी हर एक बातें, कार्य-कलाप, आचार व्यवहार इत्यादि सब उसी परिमाण में समान या प्रासमान होंगे। बाहरी रूप और आकृति अंदरूनी बनावटों से भिन्न नहीं। सब एक दूसरे के फलस्वरूप एक दूसरे में . "गुण-गुणी" की तरह एक हैं। इसमें अपवाद (exception) की गुंजाइश नहीं। प्रकृति के नियमों या कार्यों में अपवाद नहीं होते; वहां तो सब कुछ स्वाभाविक और निश्चित रूप से ही घटित होता है। शरीर को बनाने वाली “वर्गणाओं" के अतिरिक्त 'मन' (Mind) 'और मस्तिष्क (Brain) की “वर्गणाए" भी अलग होती हैं और उनकी अपनी विशेषताएँ और गुण भी अपने विशेष तौर के होते हैं। इन "मनोवर्गणाओं" की बनावट के अनुसार ही "मानव-मन" की हरकतें, मनोदेश में हलन चलन या मन की हर एक बातें, विचार या काम होते है। "पद्धल" तो निर्जीव है और पुदगल की रचना भी निर्जीव ही है। स्वयं विजली के यन्त्रों की तरह ये रचनाएँ कुछ नहीं कर सकतीं, जबकि उनमें विद्युतप्रवाह या जीवन न हो। विद्यु तयन्त्रों में और मानव शरीर में भेद केवल यह है कि इन यन्त्रों का निर्माण करके उनमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिजली का प्रवाह जारी किया जाता है जबकि मानव शरीर में आत्मा या जीवनी शक्ति और शरीर साथ-ही-साथ आरंभ से ही रहते हैं और शरीर का परिवर्तन सर्वदा साथ-साथ ही होता रहता है। ह्रास या वृद्धि भी साथ-ही-साथ होती है। इससे हम दोनों को अलग-अलग अनुभूत नहीं कर पाते। केवल मृत्यु के समय ही ऐसा लगता है कि सारे शरीर की बनावट ज्यों-की-त्यों होते हुए भी जो चालू शक्ति थी वह अब नहीं रही। जैसे बिजली के चलते यन्त्र से बिजली का आवागमन हटा लिया जाय तो वह यन्त्र एक दम कार्य बंद कर देगा। फिर भी बिजली का यन्त्र स्थिर या स्थायी दीखता है जबकि हाड़-मांस का बना शरीर तुरन्त सड़ने गलने लगता है। इन हाड़-मांस को निर्माण करने वाली वर्गणाओं का असर एवं गुण ही ऐसा है जिसके कारण यह सब होता है । हाड़-मांस ही क्यों, निर्जीव धातुओं और रसायन (Chemicals) के साथ भी ऐसी कितनी वस्तुए हैं जो जल्दी नष्ट होने वाली (perishable) होती हैं और कुछ काफी स्थायी। मानव शरीर जिन धातुओं और रसायनों से बना है उनकी बनावट ऐसी है कि वायु (Atmosphere) की वर्गणाओं के साथ मिल कर जीवन रहने पर उनमें परिवर्तन चालू । रहता है जब कि जीवन रहित हो जाने पर वे ही ऐसी वस्तुओं में परिणत हो जाती हैं जिन्हें हम दुर्गन्धिमय या सड़ा गला कहते हैं। पर होता सब कुछ वर्गणाओं की बनावट, आपसी क्रिया-प्रक्रिया एवं गुण इत्यादि के कारण ही है। यह सब कुछ स्वाभाविक रूप से अपने आप ही आपसी क्रिया-प्रक्रिया द्वारा होता है। ____ मनुष्य का 'मन' और 'शरीर' ही मनुष्य के स्वभाव को निर्मित या निश्चित करते हैं। मन की गति और हलन-चलन एवं शरीर की गति और हलन-चलन के द्वारा ही मनुष्य का प्राचार, व्यवहार, क्रियाकलाप, चाल-चलन, कार्यक्रम, अच्छाई-बुराई, साधुता-दुष्टता, शांततातीव्रता, धैर्यता, अव्यवस्थितता, क्रोध, क्षमा, वैर-मेल, हंसी-दुख, प्रसन्नता-अवसाद, मिष्ठता-कटुता इत्यादि सब कुछ बनते या होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) मन एवं शरीर की गति और हलन चलन उनको निर्माण करने वाली वर्गणाओं के संगठन और वर्गणानिर्मित रूपरेखा पर ही निर्भर करते हैं 1 1 संसार में जितने मनुष्य हैं उनके स्वभाव, बोलचाल, आचार व्यवहार, लिखना पढ़ना मानसिक संचरण, क्रियाकलाप और उनका सब कुछ एक दूसरे से भिन्न है 1 मनुष्य जो कुछ जब भी करता है वह वर्गणाओं की बनाई रूप रेखा की विशेषता द्वारा सीमित एवं वद्ध जीवनी शक्ति द्वारा संचालित होता हुआ ही करता है । एक मनुष्य का रूय, शक्ल सूरत, सुन्दरता - कुरूपता, स्वस्थता, स्वभाव की अच्छाई, बुराई इत्यादि सब कुछ उसके शरीर और मन को निर्माण करने वाली वर्गणाओं द्वारा निर्मित और एक खास तरह काही होता है । कोई मनुष्य जो कुछ भी करता है उसके अतिरिक्त वह दूसरा कर ही नहीं सकता । साँप के शरीर की वर्गणाओं का निर्माण ही ऐसा है कि जो कुछ भोजन करेगा उसमें से विष भी अवश्य तैयार होगा । गाय जो कुछ खायगी उसमें से दूध भी अवश्य तैयार होगा । शरीर और मन का अन्योन्याश्रय संबंध है । मन और मस्तिष्क भी शरीर के ही भाग हैं । गाय जब तक बच्चे वाली रहती है तभी तक दूध देती है 1 बाद में वही भोजन उसके अन्दर जाने पर भी दूध नहीं उत्पन्न करता सबका परिवर्तन होता रहता है । खानपान द्वारा या प्रकाश किरणों द्वारा या श्वासोच्छ्वास इत्यादि द्वारा बाहर से वर्गणात्रों का समूह हमारे शरीर के अन्दर जाता रहता है वहाँ विद्यमान वर्गणाओं से मिल बिछुड़ कर किया - प्रक्रिया द्वारा सब कुछ बनता बदलता रहता है । अतः मनुष्य का स्वभाव, रीति-नीति या बातव्यवहार बदलने के लिए उसको बनाने वाली वर्गणात्रों में परिवर्तन आवश्यक है I मनुष्य जो कुछ सोचता, विचारता, देखता या करता है, उनसे भी आंतरिक वर्गणाओं के संगठन में परिवर्तन होते रहते हैं । किसी मनुष्य का प्रभाव, व्यक्तित्व, और स्वभाव इत्यादि की विचित्रता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब कुछ वर्गणाओं की बनावट पर ही अवलम्बित होने से उसके शरीर की बनावट, रूप रेखा या सब कुछ उसका निश्चित और अभिन्न रूप से एक दूसरे से संबंधित है। इतना ही नहीं किसी व्यक्ति के हर एक अंग या अंग के छोटे-से-छोटे भाग की बनावट या रूप रेखा भी उसके व्यक्तित्व इत्यादि का पूर्ण परिचायक है। किसी के नाखून मात्र या अंगुलियां या हाथ देखकर ही कोई ज्ञानवान उसके वारे में सब कुछ बतला सकता है। किसी की लिखावट देख कर या आवाज सुनकर उसके बारे में इस विद्या का जानकार या अनुभवी उसके सम्बन्ध की सभी बातें बतला सकता है। किसी के रूप प्राकृति की विभिन्नता के साथ ही उसका स्वभाव, प्रभाव सोचना, विचारना, बात व्यवहार, चाल चलन, लिखना पढ़ना इत्यादि सब कुछ विभिन्न होता है। हर वस्तु या शरीर से अगणित रूप में अजस्र प्रवाह पुद्गलों का निकलता रहता है जो एक दूसरे के शरीर में घुस कर आपस में एक दूसरे पर प्रभाव डालता रहता है। ऐसी वर्गणाए भी निकलती हैं जिनकी शक्ल सूरत हूबहू उसी तरह की होती है जिस वस्तु या देह से वे निकलती हैं और जब ये ही वर्गणाएं हमारे नेत्रों में घुसती हैं तो वहाँ अपनी प्रतिच्छाया से किसी वस्तु या सत्ता या शरीर की रूपरेखा, आकृतियों, रंग वगैरह का आभास कराती हैं । प्रतिबिंबों का ज्ञान भी इसी तरह होता है। हर एक मानव के शरीर से उस मानब की आकृति की निकलने वाली वर्गणाएं केवल रूप रेखा ही नहीं बनातीं बल्कि उस मानव के गुण स्वभाव को भी लिए रहती हैं, जिनका असर बाहरी संसार पर उसी अनुसार पड़ता है। सत्पुरुष का भला और निम्नकर्मी का निम्न । इतना ही नहीं हम जैसा जिस वस्तु या शरीर या प्रतिछवि का ध्यान करते हैं हमारे अन्दर वैसी ही उसी अनुरूप वर्गणाएं निर्मित होती हैं जो बाहर भी निकलती हैं और अपने अन्दर भी प्रभाव डालती हैंशुभ दर्शन या अच्छे लोगों और वस्तुओं की मूर्तियां या छवि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) चित्र देखना और ध्यान करना शुभोत्कारक है। इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति किसी विशेष वस्तु या व्यक्ति के रूप का ध्यान करता है तो वर्गणाओं का उसी रूप में निर्माण होकर हमारे अन्दर उन रूपाकृतियों का भान कराता है। प्रेत या भूत बाधा भी इसी क्रिया (Phenomena) के फलस्वरूप है। जब किसी डर, भय या आशंका इत्यादि के कारण एक जबरदस्त भावना किसी व्यक्ति के मन के अन्दर सहसा या समय के साथ बैठते-बैठते बैठ जाती है तब वह उसी रूप का दर्शन और ध्यान इतनी एकाग्रता एवं मजबूती से करने लगता है कि वर्गणात्मक रूपों का निर्माण स्वयं उसके शरीर की गठन को एक दूसरे रूप के शरीर के समान चारों तरफ से घेर और जकड़ लेते हैं। यह वर्गणात्मक रचना दृश्य नहीं होने से हम उस शरीर को वा उसके प्रभाव को देख नहीं पाते हैं। पर चूंकि उस व्यक्ति के शरीर में आत्मज्योति या जीवनी रहती है. इससे यह ऊपर से ढकने वाला शरीर क्रियाशील हो जाता है। दुष्ट या बुरे भावों से दुष्ट कर्मी या बुरी आकृतियां एवं शुभ भावनाओं से शुभ प्राकृतियों का निर्माण होकर उनका कार्य या असर इस शरीर के अंगों को उसी विशेष प्रभाव में इस तरह प्रचालित करता है कि दोनों के सम्मिलित क्रिया-कलाप हम उस व्यक्ति की स्वाभाविक क्रियाओं से भिन्न पाते हैं; और तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति के ऊपर भूत-बाधा या किसी गुप्त शक्ति का प्रभाव हो गया है। ऐसी हालत में मन की एकाग्रता या तीव्र भावों की प्रबलता को तोड़ने या बाधा देने से लाभ देखा जाता है। इससे यह भी साबित होता है कि वर्गणा निर्मित ऐसे शरीर भी हो सकते हैं जो हमारी आंखों से अदृश्य, प्रछन्न, या गुप्त रहे; पारदर्शक वस्तुओं की बनावट के समान दिखलाई न दें फिर भी उनमें आत्मा हो, जीवन हो और वे सचमुच इसी लोक में या कहीं भी घूमते-फिरते और जीवित हों, उनकी अवस्थिति (existance) हो; जैनशास्त्रों में भी ऐसे व्यन्तर देवों का होना कहा गया है। आधुनिक समय में एक गोल मेज के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) चारों तरफ तीन चार पुरुष बैठकर किसी मृतात्मा के रूप का ध्यान करते हैं तब उस मृतात्मा का जीव उन चारों में से किसी एक पर आया हुआ कहा जाता है जब वह उस मृतात्मा के सरीखे काम करने या बातें करने लगता है। यह मृतात्मा स्वयं नहीं आती यह तो उसकी रूपाकृति का एकाग्रध्यान करने से एक वर्गणात्मक रूप का निर्माण हो जाता है जो किसी खास व्यक्ति पर अधिक प्रभावकारी होने से प्रत्यक्ष फल प्रदर्शित करता है जैसा ऊपर कह चुके हैं—वैसे शरीर एवं रूप का जो कर्म होना चाहिए या हो सकता है वही वह व्यक्ति अपने अपने अंदर विद्यमान जीवनी शक्ति के सहारे करने लगता है। यही इस विद्या का गूढ़ रहस्य है। पुद्गल की बनावट तो निर्जीव है। इस शरीर में जो कुछ भी संज्ञान ओर चेतना पूर्ण हलन चलन या अनुभव होते हैं या क्रियाए होती हैं वे सब आत्मा की विद्यमानता के फलस्वरूप ही हैं। आत्मा की चेतना और पुद्गल का रूपी शरीर दोनों के मिलने से ही सारे कार्य कलाप होते हैं। 'जीव' की अवस्थिति के वगैर कुछ नहीं हो सकता । 'प्रेत बाधा' या 'भूत बाधा' जिस भावनात्मक रूप का निर्माण वर्गणाओं के संगठन द्वारा करती है वह भी उस व्यक्ति में जीवनी या उसके असली शरीर में रहने के कारण ही प्रभाव करता है। निर्जीव में यह बात नहीं हो सकती। ___मानव शरीर के अन्दर जितनी वर्गणाएं हैं उन्हें प्रधानतः तीन भागों में विभक्त किया गया है। “कार्मणवर्गणा", "तेजस वर्गणा" एवं "औदारिक वर्गणा"। मनुष्य का हर एक कार्य, व्यवहार, आचरण इन वर्गणाओं को अलग-अलग बनावटों द्वारा ही निर्मित एवं परिचालित होता है। किसी एक कर्म को उत्पन्न करने या क्रियाशील बनाने वाली ------------------ * इनकी जानकारी के लिए तत्वार्थाधिगम सूत्र, द्रव्य संग्रह जैसे जैन सिद्धान्त ग्रन्थों का मनन करें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गणाएं अनादिकाल से अब तक न जाने कब निर्मित या इकट्ठी हुई थीं कहना कठिन है। अनादिकाल से अब तक इनका आदान-प्रदान एवंएक दूसरे के साथ क्रिया-प्रक्रिया भीतर तथा बाहर से आने-जाने वाले पुद्गल संघों के साथ होती ही आती है। इसी को कर्म कृत "भाग्य' भी कहते हैं जो समय-समय पर किसी खास प्रकार के आचरण कराकर कोई खास फल देता है। मानव का “कर्म" या "भाग्य" और उसका रूप, बनावट तथा आकार सब घनिष्ट रूप से गुण-गुणी की तरह सम्बन्धित हैं। "मनोवर्गणाओं" का पुजीभूत विशिष्ट आकार प्रकार ही "मन" है उसकी क्रियाएं भी अव्यवस्थित न होकर निश्चित फलरूप ही होती हैं। मनुष्य का स्वभाव तो फिर निश्चित एवं सीमित होने से अच्छा या बुरा अपने आप वर्गणाओं के प्रभाव में चलता रहता है। मानव जन्म एक विशिष्ट योनि में, किसी विशेष स्थान में और किसी खास व्यक्ति के ही यहां होना भी इन वर्गणाओं की करामत कर ही एक ज्वलन्त उदाहरण है ।* कहने का तात्पर्य यह कि संसार में या विश्व में जो कुछ बनता बिगड़ता, नया उत्पादन, हेर-फेर, जन्म-मृत्यु, सृष्टि, पालन-पोषण, विनाश इत्यादि जिन्हें लोग किसी 'कर्ता' का कर्तृत्व मानते हैं वह सब स्वतः ही स्वाभाविक गति एवं नियमित रूप में इन पुद्गलों या पुद्गल संघों के मिलने बिछड़ने इत्यादि से ही होता रहता है। सारा विश्व एक अभिन्न, * कार्मणवर्गणाओं द्वारा मनुष्य या किसी भी जीवधारी का “जीवात्मा" एक योनि से “मृत्यु" होने पर दूसरी योनि में कैसे और क्यों जाता है इसके लिए-"अनेकान्त" वर्ष १० किरण ४-५ में प्रकाशित मेरा लेख 'जीवन और विश्व के परिवर्तनों का रहस्य देखें। अनेकान्त वर्ष ११ किरण ७-८ में प्रकाशित मेरा लेख "विश्व एकता और शान्ति" भी भाग्य और भाग्यफल की विशेष जानकारी के लिए देखें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) अविनाशी, शास्वत सत्य एवं संपूर्ण इकाई है इसका कोई भाग अलग नहीं — सबका असर सब पर अक्षुण्ण रूप से अवश्य पड़ता है । भिन्नता और द्वेष -विद्वेष इत्यादि के विचार हनिकारक एवं मूलतः भ्रमपूर्ण हैं । कोई व्यक्ति, समाज या देश अलग-अलग सच्चा सुख और स्थायी शान्ति स्थापित नहीं कर सकते न पा ही सकते हैं । यह अवस्था तो आखिर विश्व को एक समझ कर उचित व्यवस्था द्वारा कुछ करने से ही उपलब्ध हो सकती है । जैसे व्यक्ति का भाग्य उसके पूर्व कृत संचित कर्मों से बनता है उसी तरह देशवासियों के पूर्व कर्मों का इकट्ठा फल देशों के भाग्य का भी निरूपण करता है और इसी तरह विश्व या संसार का भी एक भाग्य बनता है। ग्रहों, उपग्रहों इत्यादि की गतियों और उनके कम्पन - प्रकम्पनादि से निःसृत वर्गणात्रों का भी असर देशों और व्यक्तियों पर तथा इस पृथ्वी पर पड़ता है— पर व्यक्तियों एवं देशों के कर्मों का समुच्चय रूप से संचित प्रभाव ही फलवतो होकर संसार या पृथ्वी के भाग्य का निर्माण करने में प्रमुख है । सच्चा सुख और शान्ति विश्वव्यापी रूप में ही सम्भव है – अकेला अकेला नहीं । बड़ा कुटुम्ब है । कोई अकेला नहीं है। सभी लोग या देश सभी दूसरे लोगों या देशों पर अपना प्रभाव डालते हैं । व्यक्तियों और देशों को भी आपसी विग्रह की भावनाएं एवं नीच ऊँच के विचार त्याग कर संसारोत्थान में सहयोग देना ही हर तरह उनके तथा संसार के कल्याण का दाता हो सकता है । संसार एक वस्तु स्वरूप पर अनेकान्तात्मक ध्यान रखना ही जैनपना है । यही बुद्धिमानी है । सच्चा धर्म वही है जो मानव-मानव में विभेद न करे । आत्मा सभी का शुद्ध और शरीर सभी का पुद्गलमय एक सा ही पवित्र या अपवित्र जैसा समझा जाय है कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं— कोई मी न जन्म से पवित्र है न अपवित्र । अतः शूद्रअशूद्र, छूत-अछूत काला गोरा इत्यादि के भेद भाव त्याग कर हर एक को समान देखना और व्यवहार करना ही जैन धर्म का मूलमंत्र तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 1 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण है। "समता-वाद", "समदर्शीभाव" ही असल जैनत्व है। यही मनुष्यत्व भी है। - इसका आचरण ही जैन धर्म का आचरण है—यही - सच्ची मानवता या मनुष्य का अपना धर्म है। अच्छा बुरा स्वभाव तो पुद्गलनिर्मित वर्गणाओं द्वारा ही परिचालित होने से दोषो कोई नहीं; हाँ इन वर्गणाओं की बनावट में तबदीली लाने के लिए शुद्ध भाव, अच्छे कर्म एवं उचित शिक्षा संस्कृति, समान सुविधा और उपयुक्त परिस्थिति या बातावरण की आवश्यकता सर्वप्रथम है । अहिंसा और सत्य का पालन भी समानाचरण और समभाव या समता द्वारा ही हो सकता है अन्यथा तो प्रमाद और दूसरों को नीचे गिरा रहने को मजबूर करने या गिरा रखने के कारण उनके द्वारा किए गए बुरे कर्मों और पापों का जिम्मेदार ऐसा करने वाला व्यक्ति स्वयं है। परिस्थितियों से मजबूर, विवश एवं बेकाबू होकर कोई गरीब या दुखी पाप करने को बाध्य होता है तो उसको कैसे दोषी कहा जा सकता है। उसे उचित साधन, सुविधा एवं सहयोग देकर अच्छा या योग्य बनाना यह धर्म, समाज तथा देश और संसार के विद्वान एवं समर्थ और प्रभाव रखनेवाले सभी समझदार व्यक्तियों और सरकारों का कर्तव्य है। ऐसा न कर हम धर्म से ध्युत तो होते ही हैं मनुष्यता से भी वंचित होते हैं । ऐसा करके ही हम पुरुषार्थ तो सिद्ध करते ही हैं, अपना और लोक का सच्चा कल्याण करते हुए अपनी सच्ची उन्नति करते हैं और संसार की उन्नति होने से पुनः अपनी भी दोहरी उन्नति होती है। यही अपना असली स्वार्थ है और यही परमार्थ भी। यही कर हम सुख एवं परम सुख को सचमुच पा सकते हैं। जगह-जगह या देश-देश की शासन व्यवस्थाओं का भी यह प्रथम प्रधान कर्तव्य है कि सबके लिए उन्नति और ज्ञान लाभ की समान सुविधाएं उपलब्ध बनावें। जो पहले से ही नीचे गिरे हुए हैं उन्हें सर्वप्रथम आगे बढ़े हुए या उठे हुए की सीध में लाना आवश्यक है अन्यथा समान सुविधा का कोई अर्थ न निकलकर उलटे वह बढ़े हुए को ही आगे बढ़ाने में और पीछे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालों को और पीछे हटाने में ही प्रयुक्त होने लगता है। आज विश्व में चारों तरफ जो विडम्बनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं वे इसी कारण हैं कि वस्तु के असल स्वरूप, प्रकृति और गुण के सच्चे ज्ञान का प्रकाश बहुत कम रह गया है। जहां है, वहां भी प्रमाद के कारण उलटी प्रवृति ही अधिक दीखती है। निम्न स्वार्थ को ही लोग अपना स्वार्थ समझते हैं। रुपया ही सब कुछ समझ लिया गया है। इन सबका निराकरण एवं निर्मल वस्तु स्वभाव के ज्ञान की प्राप्ति जैन सिद्धान्तों में वर्णित जीव और पुद्गल तथा दूसरे सहायक द्रव्यों के रूप और क्रिया-प्रक्रिया के मनन और ग्रहण तथा व्यापक प्रचार द्वारा ही हो सकता है। संसार में अहिंसा का प्रचार और स्थायी शान्ति तथा सर्वत्र सच्चे सुख और सत्य की स्थापना भी इसी सच्चे ज्ञान द्वारा सम्भव है। क्या हरएक जैन मात्र या मनुष्य मात्र का कर्तव्य यह नहीं है कि यथाशक्ति तनमन-धन द्वारा इसको अपना सच्चा कल्याण स्वरूप समझकर सारे भेद-भाव दूर कर संयमित, संतुलित और एकत्रित उद्योग और इसके प्रचार में अपने को लगा दे ? धनियों को अपने धन का सबसे उचित उपयोग करने का दूसरा कोई अवसर इससे बढ़कर नहीं आ सकता है न विद्वानों को अपनी विद्या का ही। घमंड और लज्जा छोड़कर इस परम पावन और परम आवश्यक कार्य में शीघ्रातिशीघ्र जुट जाना, लग जाना, संलग्न हो जाना ही समय की मांग और परमहितकारी है। मानव प्रकृति वर्गणाओं से उत्पन्न होती है और उन्हीं के प्रभाव में परिचालित रहती है। उनमें परिवर्तन लाने के लिए दृढ़ निष्ठा और भावनाओं को कार्यरूप में परिणत करने से ही कुछ सुधार की श्राशा हो सकती है। किसी कार्य का असर तुरंत न होकर उपयुक्त समय पर ही होता है। तुरंत असर या फल या प्रभाव न दिखलायी देने से निराश होने की जरूरत नहीं। कार्य करने पर वर्गणाओं की बनावट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) में हर जगह परिवर्तन होकर अपने आप उपयुक्त फल देगा। हाँ कर्म और उद्योग एवं प्रयत्न का प्रारम्भ अभी से कर देना, यदि अब तक न किया हो तो, आवश्यक है। आशा है कि मानवता के हितचिन्तक, अपने सच्चे स्वार्थ की सच्ची सिद्धि के साधक और लोक कल्याण के इच्छुक इयर अवश्य ध्यान देंगे। विजली की धारा स्वयं कर्म नहीं करती। विधुतशक्ति की विद्यमानता में ही यन्त्रों द्वारा विभिन्न बनावटों के अनुसार कार्य अपने आप सम्पन्न होने लगते हैं। तब कहा जाता है कि बिजली द्वारा ये काम हो रहे हैं। उसी तरह आत्मा स्वयं कुछ नहीं करता पर शरीर रूपी यन्त्र अपनी बनावट के अनुसार आत्म शक्ति अन्दर वर्तमान रहने से स्वयं कार्यशील रहता है। और तब आत्मा को “कर्ता' की उपाधि दी जाती है। साथ ही आत्मा चेतनामय (conscious) होने से दुख, सुख का अनुभव भी करता है इसीसे इसे “भोक्ता" भी कहते हैं। __ आत्मा तो सर्वदा एक समान शुद्ध है। कर्म तो शरीर का गुण है। हाँ, यह कर्म आत्मा के विद्यमान रहने से जीवनी शक्ति के प्रभाव के अन्तर्गत ही होता है। आत्मा भी अकेला कर्म नहीं करता और पुद्गल भी अकेला सचेतन कर्म नहीं कर सकता। वर्गणाओं में आदान-प्रदान होकर, तबदीलियां होकर तजन्य प्रभाव द्वारा ही शारीरिक या मानसिक क्रिया-कलाप होते हैं। कर्मों को विशिष्ट और अच्छा बनाने के लिए उचित सुविधाएँ और परिस्थितियों का होना संसार में अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा और वर्गणाओं का समूह यह शरीर न नीच है न ऊँच, न अपवित्र है न पवित्र । हमारी अपनी उन्नति, धर्म और समाज की उन्नति एवं देश और संसार की उन्नति कर्मों को अच्छा बनाने से ही हो सकती है। इसके लिए हर एक को सहायता एवं सहयोग तथा सहानुभूतिपूर्वक ऐसे साधन उपलब्ध करने चाहिए जिससे वह अच्छी संगति, अच्छे भाव एवं शुभ दर्शन प्राप्त कर अपने आत्मा को बाँधने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) वाली वर्गणाओं की बनावट और संगठन में समुचित परिवर्तन ला सके। हर एक का अक्षुण्ण प्रभाव हर एक दूसरे व्यक्ति पर पूर्णरूप से पड़ता है। अपनी पूर्ण एवं सच्ची उन्नति के लिए अपने चारों तरफ के सभी लोगों की उन्नति आवश्यक है। हम अकेले शारीरिक मानसिक शुद्धि की सफलता में हजारवाँ भाग भी नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि वर्गणाओं का निःसरण और प्रवेश हर एक शरीर से दूसरे शरीर में होता रहता है। रूप, प्राकृतियों का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। भावनाओं और कर्मों का तो फिर कहना ही क्या। कोई भी चित्र मूर्ति, दृष्य इत्यादि जो हम देखते हैं उनका गहरा असर हमारे ऊपर हर तरह से पड़ता है। इसीलिए तीर्थंकर की शान्त, आत्मस्थध्यानमई मूर्ति का दर्शन और ध्यान हमारे भीतर शान्ति उत्पन्न करती है और आत्मभावनाओं को उत्तरोत्तर बढ़ाती है। अपने कर्मों और भावों के असर तथा खानपान के प्रभाव तो हमारे शरीर और कर्मों पर होते ही हैं और उनसे हम अवगत हैं—पर दूसरे लोगों की बातों, कर्मों और भावनाओं का भी असर हमारे ऊपर अक्षुणरूप से पड़ता रहता है। किसी को दोष न । देकर सबको समान अवसर दें यही सच्चा धर्म है और है अनेकान्तात्मक सत्य और अहिंसा का पालन भी । जैन कर्मवाद का वहुत कुछ स्पष्टीकरण इस विवेचन से हो जाता है। वास्तव में जैनाचार्यों की कर्मवाद सम्बन्धी प्रक्रिया का प्ररूपण नितान्त वैज्ञानिक और मौलिक है एवं द्रव्य और भावकर्म के स्वरूप, और कार्यों का विवेचन विज्ञान प्रणाली पर आश्रित है। ____ "कर्मों” का रसायनिक मिश्रण, उससे उत्पन्न शक्ति प्रभाव तथा फल किस आधार पर आश्रित हैं, ऊपर इसका संक्षेप में निरूपण किया गया। इसकी विशद जानकारी के लिए द्रव्य संग्रह, तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, गोमट्टसार इत्यादि ग्रन्थ देंखें, एव मेरा लेख “जीवन और विश्व के परिवर्तनों का रहस्य" देखें-यह लेख सम्पादक 'अनेकान्त', अहिन्सा मंदिर, १, दरियागंज, देहली से प्राप्त हो सकता है ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखिल विश्व जैन मिशन जीवधारियों की चेतना या ज्ञान और उनके कर्म का आधार या श्रोत कहां, क्या, कैसे और क्यों है इस विषय के सच्चे ज्ञान का बड़ा अभाव संसार में अब भी है । विभिन्न धर्मों ने अपनी-अपनी खिचड़ी अलग-अलग पका कर और एक दूसरे का विरोध खड़ा कर के बड़ा अधिक गोलमाल कर रखा है। "धर्माधिपति" लोग अपनी पूज्यता, महत्ता और आजीविका बनाए रखने के लिए लोक और समाज को अपने चंगुल और रूढ़ियों, मूढ़ताओं या मिथ्या मान्यताओं से मुक्त नहीं होने देते। भौतिक विज्ञान की व्यापक जानकारी और प्रचार के इस तर्क बुद्धि-सत्य के युग में भी लोगों ने भ्रमात्मक धार्मिक विचारों, भयों अथवा आर्थिकस्वार्थ के वशीभूत सत्य को ही तर्क, अतर्क, कुतर्क इत्यादि से विकृत बना कर उसे ही या आडम्वरमय असत्य को ही अपने और दूसरों पर लाद रखा है। .. धर्म, ईश्वर, न्याय और रक्षा के नाम में भयानक महायुद्ध होते हैं और नरहत्याएं करोड़ों की संख्या में की जाती हैं। एक तीसरे सर्वनाशी विश्व युद्ध की तैयारियां अब भी जोरों में जारी हैं। ___यह सारा रगड़ा-झगड़ा शुद्ध आत्मज्ञान की कमी या सत्य और अहिंसा के अभाव के ही कारण है। "वस्तु विज्ञान" बिना “आत्म विज्ञान" के अधूरा है। इसे दूर करना हर समझदार व्यक्ति, संस्था, और सरकारों का कर्तव्य है। अखिल विश्व जैन मिशन ने इस दिशा में कदम बढाया है। मिशन ने इंगलैंड, जर्मनी, फ्रान्स, इटली, अमेरिका आदि पश्चिमीय देशों में अपने प्रचारक उपलब्ध कर अहिंसा, सत्य, शान्ति और मच्चे आत्मधर्म के संदेश का विस्तार करने की चेष्टा की है। "Voice of Ahinsa" मैगजिन अंगरेजी में निकाल कर एवं बहुत से अच्छे अच्छे ट्रैक्ट लाखों की संख्या में प्रकाशित कर सभी जगह बंटवाकर इसने बड़ा भारी काम किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखिल विश्व जैन मिशन ( भीतर के पृष्ट का शेषांश ) स्वकल्याण और मानव कल्याण के सच्चे इच्छुक व्यक्तियों का (विशेषतः अपने को सच्चा अहिंसावादी समझने वालों का) यह प्रथम कत्तव्य है कि अखिल विश्व जैन मिशन के इस अनुपम कार्य को तन मन धन से पूर्ण सहायता देकर आगे बढ़ावें। __ मिशन की सहायता के कुछ तरीके __ (1) स्वयं यथाशक्ति दान दें और दूसरों से दिलवावें (2) स्वयं मिशन के सदस्य बनें और दूसरों को बनावें (3) मिशन के प्रकाशित ट्रैक्ट और पत्रिकाएँ स्वंय पढ़ें और दूसरों में प्रचारित करें। (4) मिशन से प्रकाशित हिन्दी की "अहिंसा वाणी" मासिक पत्रिका (वार्षिक शुल्क-पांच रु०) और अंगरेजी की "Voice of Ahinsa"-bymonthly (Annual Subscription Rs. 6-0-0) के ग्राहक बनें और बनावें (5) ट्रैक्टों को अपने खर्चे से छपवाकर वितरित कर शुद्ध ज्ञान और अहिंसा का व्यापक विस्तार करने में सहायक हों (6) मिशन के केन्द्र सभी जगह स्थापित करें (7) इस संस्था को सर्वदा याद रखें और अपनी संरक्षता, सहयोग, सहानुभूति, एवं सहायता प्रदान कर प्रोत्साहित करते रहें। सहायता भेजने और विवरण प्राप्त करने का पताः श्री कामता प्रसाद जैन, ___D. L., M.R.A.S. प्रधान संचालक, अखिल विश्व जैन मिशन पो० अलीगंज, जि० एटा, उत्तरप्रदेश वैशाली प्रेस, पटना-४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com