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________________ ( १२ ) अविनाशी, शास्वत सत्य एवं संपूर्ण इकाई है इसका कोई भाग अलग नहीं — सबका असर सब पर अक्षुण्ण रूप से अवश्य पड़ता है । भिन्नता और द्वेष -विद्वेष इत्यादि के विचार हनिकारक एवं मूलतः भ्रमपूर्ण हैं । कोई व्यक्ति, समाज या देश अलग-अलग सच्चा सुख और स्थायी शान्ति स्थापित नहीं कर सकते न पा ही सकते हैं । यह अवस्था तो आखिर विश्व को एक समझ कर उचित व्यवस्था द्वारा कुछ करने से ही उपलब्ध हो सकती है । जैसे व्यक्ति का भाग्य उसके पूर्व कृत संचित कर्मों से बनता है उसी तरह देशवासियों के पूर्व कर्मों का इकट्ठा फल देशों के भाग्य का भी निरूपण करता है और इसी तरह विश्व या संसार का भी एक भाग्य बनता है। ग्रहों, उपग्रहों इत्यादि की गतियों और उनके कम्पन - प्रकम्पनादि से निःसृत वर्गणात्रों का भी असर देशों और व्यक्तियों पर तथा इस पृथ्वी पर पड़ता है— पर व्यक्तियों एवं देशों के कर्मों का समुच्चय रूप से संचित प्रभाव ही फलवतो होकर संसार या पृथ्वी के भाग्य का निर्माण करने में प्रमुख है । सच्चा सुख और शान्ति विश्वव्यापी रूप में ही सम्भव है – अकेला अकेला नहीं । बड़ा कुटुम्ब है । कोई अकेला नहीं है। सभी लोग या देश सभी दूसरे लोगों या देशों पर अपना प्रभाव डालते हैं । व्यक्तियों और देशों को भी आपसी विग्रह की भावनाएं एवं नीच ऊँच के विचार त्याग कर संसारोत्थान में सहयोग देना ही हर तरह उनके तथा संसार के कल्याण का दाता हो सकता है । संसार एक वस्तु स्वरूप पर अनेकान्तात्मक ध्यान रखना ही जैनपना है । यही बुद्धिमानी है । सच्चा धर्म वही है जो मानव-मानव में विभेद न करे । आत्मा सभी का शुद्ध और शरीर सभी का पुद्गलमय एक सा ही पवित्र या अपवित्र जैसा समझा जाय है कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं— कोई मी न जन्म से पवित्र है न अपवित्र । अतः शूद्रअशूद्र, छूत-अछूत काला गोरा इत्यादि के भेद भाव त्याग कर हर एक को समान देखना और व्यवहार करना ही जैन धर्म का मूलमंत्र तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 1
SR No.035254
Book TitleSharir Ka Rup aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandprasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1953
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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