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________________ ( १५ ) में हर जगह परिवर्तन होकर अपने आप उपयुक्त फल देगा। हाँ कर्म और उद्योग एवं प्रयत्न का प्रारम्भ अभी से कर देना, यदि अब तक न किया हो तो, आवश्यक है। आशा है कि मानवता के हितचिन्तक, अपने सच्चे स्वार्थ की सच्ची सिद्धि के साधक और लोक कल्याण के इच्छुक इयर अवश्य ध्यान देंगे। विजली की धारा स्वयं कर्म नहीं करती। विधुतशक्ति की विद्यमानता में ही यन्त्रों द्वारा विभिन्न बनावटों के अनुसार कार्य अपने आप सम्पन्न होने लगते हैं। तब कहा जाता है कि बिजली द्वारा ये काम हो रहे हैं। उसी तरह आत्मा स्वयं कुछ नहीं करता पर शरीर रूपी यन्त्र अपनी बनावट के अनुसार आत्म शक्ति अन्दर वर्तमान रहने से स्वयं कार्यशील रहता है। और तब आत्मा को “कर्ता' की उपाधि दी जाती है। साथ ही आत्मा चेतनामय (conscious) होने से दुख, सुख का अनुभव भी करता है इसीसे इसे “भोक्ता" भी कहते हैं। __ आत्मा तो सर्वदा एक समान शुद्ध है। कर्म तो शरीर का गुण है। हाँ, यह कर्म आत्मा के विद्यमान रहने से जीवनी शक्ति के प्रभाव के अन्तर्गत ही होता है। आत्मा भी अकेला कर्म नहीं करता और पुद्गल भी अकेला सचेतन कर्म नहीं कर सकता। वर्गणाओं में आदान-प्रदान होकर, तबदीलियां होकर तजन्य प्रभाव द्वारा ही शारीरिक या मानसिक क्रिया-कलाप होते हैं। कर्मों को विशिष्ट और अच्छा बनाने के लिए उचित सुविधाएँ और परिस्थितियों का होना संसार में अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा और वर्गणाओं का समूह यह शरीर न नीच है न ऊँच, न अपवित्र है न पवित्र । हमारी अपनी उन्नति, धर्म और समाज की उन्नति एवं देश और संसार की उन्नति कर्मों को अच्छा बनाने से ही हो सकती है। इसके लिए हर एक को सहायता एवं सहयोग तथा सहानुभूतिपूर्वक ऐसे साधन उपलब्ध करने चाहिए जिससे वह अच्छी संगति, अच्छे भाव एवं शुभ दर्शन प्राप्त कर अपने आत्मा को बाँधने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035254
Book TitleSharir Ka Rup aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandprasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1953
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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