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वालों को और पीछे हटाने में ही प्रयुक्त होने लगता है। आज विश्व में चारों तरफ जो विडम्बनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं वे इसी कारण हैं कि वस्तु के असल स्वरूप, प्रकृति और गुण के सच्चे ज्ञान का प्रकाश बहुत कम रह गया है। जहां है, वहां भी प्रमाद के कारण उलटी प्रवृति ही अधिक दीखती है। निम्न स्वार्थ को ही लोग अपना स्वार्थ समझते हैं। रुपया ही सब कुछ समझ लिया गया है। इन सबका निराकरण एवं निर्मल वस्तु स्वभाव के ज्ञान की प्राप्ति जैन सिद्धान्तों में वर्णित जीव और पुद्गल तथा दूसरे सहायक द्रव्यों के रूप और क्रिया-प्रक्रिया के मनन और ग्रहण तथा व्यापक प्रचार द्वारा ही हो सकता है। संसार में अहिंसा का प्रचार और स्थायी शान्ति तथा सर्वत्र सच्चे सुख और सत्य की स्थापना भी इसी सच्चे ज्ञान द्वारा सम्भव है। क्या हरएक जैन मात्र या मनुष्य मात्र का कर्तव्य यह नहीं है कि यथाशक्ति तनमन-धन द्वारा इसको अपना सच्चा कल्याण स्वरूप समझकर सारे भेद-भाव दूर कर संयमित, संतुलित और एकत्रित उद्योग और इसके प्रचार में अपने को लगा दे ? धनियों को अपने धन का सबसे उचित उपयोग करने का दूसरा कोई अवसर इससे बढ़कर नहीं आ सकता है न विद्वानों को अपनी विद्या का ही। घमंड और लज्जा छोड़कर इस परम पावन और परम आवश्यक कार्य में शीघ्रातिशीघ्र जुट जाना, लग जाना, संलग्न हो जाना ही समय की मांग और परमहितकारी है।
मानव प्रकृति वर्गणाओं से उत्पन्न होती है और उन्हीं के प्रभाव में परिचालित रहती है। उनमें परिवर्तन लाने के लिए दृढ़ निष्ठा और भावनाओं को कार्यरूप में परिणत करने से ही कुछ सुधार की श्राशा हो सकती है। किसी कार्य का असर तुरंत न होकर उपयुक्त समय पर ही होता है। तुरंत असर या फल या प्रभाव न दिखलायी देने से निराश होने की जरूरत नहीं। कार्य करने पर वर्गणाओं की बनावट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com