Book Title: Sharir Ka Rup aur Karm
Author(s): Anandprasad Jain
Publisher: Akhil Vishva Jain Mission

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Page 13
________________ वर्गणाएं अनादिकाल से अब तक न जाने कब निर्मित या इकट्ठी हुई थीं कहना कठिन है। अनादिकाल से अब तक इनका आदान-प्रदान एवंएक दूसरे के साथ क्रिया-प्रक्रिया भीतर तथा बाहर से आने-जाने वाले पुद्गल संघों के साथ होती ही आती है। इसी को कर्म कृत "भाग्य' भी कहते हैं जो समय-समय पर किसी खास प्रकार के आचरण कराकर कोई खास फल देता है। मानव का “कर्म" या "भाग्य" और उसका रूप, बनावट तथा आकार सब घनिष्ट रूप से गुण-गुणी की तरह सम्बन्धित हैं। "मनोवर्गणाओं" का पुजीभूत विशिष्ट आकार प्रकार ही "मन" है उसकी क्रियाएं भी अव्यवस्थित न होकर निश्चित फलरूप ही होती हैं। मनुष्य का स्वभाव तो फिर निश्चित एवं सीमित होने से अच्छा या बुरा अपने आप वर्गणाओं के प्रभाव में चलता रहता है। मानव जन्म एक विशिष्ट योनि में, किसी विशेष स्थान में और किसी खास व्यक्ति के ही यहां होना भी इन वर्गणाओं की करामत कर ही एक ज्वलन्त उदाहरण है ।* कहने का तात्पर्य यह कि संसार में या विश्व में जो कुछ बनता बिगड़ता, नया उत्पादन, हेर-फेर, जन्म-मृत्यु, सृष्टि, पालन-पोषण, विनाश इत्यादि जिन्हें लोग किसी 'कर्ता' का कर्तृत्व मानते हैं वह सब स्वतः ही स्वाभाविक गति एवं नियमित रूप में इन पुद्गलों या पुद्गल संघों के मिलने बिछड़ने इत्यादि से ही होता रहता है। सारा विश्व एक अभिन्न, * कार्मणवर्गणाओं द्वारा मनुष्य या किसी भी जीवधारी का “जीवात्मा" एक योनि से “मृत्यु" होने पर दूसरी योनि में कैसे और क्यों जाता है इसके लिए-"अनेकान्त" वर्ष १० किरण ४-५ में प्रकाशित मेरा लेख 'जीवन और विश्व के परिवर्तनों का रहस्य देखें। अनेकान्त वर्ष ११ किरण ७-८ में प्रकाशित मेरा लेख "विश्व एकता और शान्ति" भी भाग्य और भाग्यफल की विशेष जानकारी के लिए देखें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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