________________
प्राण है। "समता-वाद", "समदर्शीभाव" ही असल जैनत्व है। यही
मनुष्यत्व भी है। - इसका आचरण ही जैन धर्म का आचरण है—यही - सच्ची मानवता या मनुष्य का अपना धर्म है। अच्छा बुरा स्वभाव तो
पुद्गलनिर्मित वर्गणाओं द्वारा ही परिचालित होने से दोषो कोई नहीं; हाँ इन वर्गणाओं की बनावट में तबदीली लाने के लिए शुद्ध भाव, अच्छे कर्म एवं उचित शिक्षा संस्कृति, समान सुविधा और उपयुक्त परिस्थिति या बातावरण की आवश्यकता सर्वप्रथम है । अहिंसा और सत्य का पालन भी समानाचरण और समभाव या समता द्वारा ही हो सकता है अन्यथा तो प्रमाद और दूसरों को नीचे गिरा रहने को मजबूर करने या गिरा रखने के कारण उनके द्वारा किए गए बुरे कर्मों और पापों का जिम्मेदार ऐसा करने वाला व्यक्ति स्वयं है। परिस्थितियों से मजबूर, विवश एवं बेकाबू होकर कोई गरीब या दुखी पाप करने को बाध्य होता है तो उसको कैसे दोषी कहा जा सकता है। उसे उचित साधन, सुविधा एवं सहयोग देकर अच्छा या योग्य बनाना यह धर्म, समाज तथा देश और संसार के विद्वान एवं समर्थ और प्रभाव रखनेवाले सभी समझदार व्यक्तियों और सरकारों का कर्तव्य है। ऐसा न कर हम धर्म से ध्युत तो होते ही हैं मनुष्यता से भी वंचित होते हैं । ऐसा करके ही हम पुरुषार्थ तो सिद्ध करते ही हैं, अपना और लोक का सच्चा कल्याण करते हुए अपनी सच्ची उन्नति करते हैं और संसार की उन्नति होने से पुनः अपनी भी दोहरी उन्नति होती है। यही अपना असली स्वार्थ है और यही परमार्थ भी। यही कर हम सुख एवं परम सुख को सचमुच पा सकते हैं। जगह-जगह या देश-देश की शासन व्यवस्थाओं का भी यह प्रथम प्रधान कर्तव्य है कि सबके लिए उन्नति और ज्ञान लाभ की समान सुविधाएं उपलब्ध बनावें। जो पहले से ही नीचे गिरे हुए हैं उन्हें सर्वप्रथम आगे बढ़े हुए या उठे हुए की सीध में लाना आवश्यक है अन्यथा समान सुविधा का कोई अर्थ न निकलकर उलटे वह बढ़े हुए को ही आगे बढ़ाने में और पीछे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com