Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 7
________________ सम्पादकीय भावोन्मेष परमात्मा के असीम अनुग्रह से प्रथम बार हिन्दी विवेचन सहित सम्मतिप्रकरण के मूल और व्याख्याग्रन्थ के प्रथम खण्ड का सविवरण सम्पादन पूरा हो रहा है यह मेरे लिये आनन्दानुभूति का त्यौहार है / करिबन 3 वर्ष पहले पूज्यपाद गुरु भगवंत आचार्य श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से इस कार्य का मंगल प्रारम्भ हआ था। उस वक्त मूल और व्याख्या के प्रथम खण्ड के तीन संस्करण विद्यमान थे। (1) वाराणसेय श्री जैन यशोविजय पाठशाला की ओर से श्री यशोविजय ग्रन्थमाला के अन्तर्गत 'सम्मत्याख्यप्रकरण' . इस नाम से सर्व प्रथम 200 पृष्ठ वाला प्रथम भाग वीर सं० 2436 में छपा था जिस में "विशेषणस्य संयोगविशेषस्य रचनालक्षणस्याऽसिद्धेः तद्वतो विशेष्यस्याप्यसिद्धिः” (प्रस्तुत संस्करण पृष्ठ 464-2) यहाँ तक व्याख्या पाठ विद्यमान था। (2) गुजरात विद्यापीठ की ओर से सम्पूर्ण व्याख्या सहित इस ग्रन्थ का प्रथम खण्ड वि० सं० 1980 में प्रगट किया गया-जिसका सम्पादन पं० सुखलाल और पं० बेचरदास के युगलं ने किया . था / इस संस्करण में पूर्व मुद्रित प्रथम खंड (अपूर्ण) का कोई उल्लेख नहीं है। . (3) अमदाबाद की जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा की ओर से प्रताकार प्रथम खण्ड व्याख्यासहित वि० सं० 1996 में प्रगट हुआ-जिसका सम्पादन मुनिश्री शिवानन्दविजय महाराज ने किया था। इस संस्करण में पूर्व के किसी संस्करण का उल्लेख नहीं है और ग्रन्थ को देखने से यह अनुमान होता है कि मुनि श्री शिवानन्दविजयजी ने स्वतन्त्र परिश्रम से ही इसका सम्पादन किया होगा। . प्रस्तुत चौथे संस्करण में दूसरे-तीसरे संस्करण के आधार से ही मूल और व्याख्या का पुनमुद्रण किया गया है, फिर भी अध्येतावर्ग की अनुकूलता के लिये बहुत ही छोटे छोटे परिच्छेदों में ग्रन्थ को विभक्त किया गया है, किन्तु उस वक्त यह पूरा खयाल रखा है कि कहीं भी संदर्भक्षति न हो। तदुपरांत, प्रत्येक पृष्ठ के ऊपर ग्रन्थ के मुख्य विषय के शीर्षक लगाये गये हैं। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के प्रारम्भ में सामान्यतया ननु, अथ तथा इति चेत्-उच्यते इत्यादि संकेत व्याख्याग्रन्थ में कहीं पर होते है तो कहीं नहीं भी होते-इस स्थिति में पूर्वोत्तर पक्ष की पहचान के लिये वाक्यप्रारम्भ के आद्यशब्द के लिये भिन्न टाइप का उपयोग किया गया है / तदुपरांत, जहां जहां व्याख्या में 'ऐसा पहले कह दिया है' इस प्रकार का अतिदेश किया गया है उस स्थान को देखने के लिये हिन्दी विवेचन में ही ब्रकेट में पृष्ठ और पंक्ति नम्बर दिये गये हैं, इसलिये दूसरे संस्करण में जो नीचे टिप्पणीयां दी गयी थी उनकी यहाँ आवश्यकता नहीं रही है, फिर भी अर्थ स्पष्टीकरण के लिये कुछ आवश्यक टीप्पण हमने स्वयं लिखकर रखी है जो पूर्व संस्करण में नहीं है। पाठान्तरों का उल्लेख हमने यहाँ छोड दिया है, क्योंकि हिन्दी विवेचन में अर्थसंगति के लिये जो पाठ उचित लगा उसी का यहाँ संग्रह किया गया है, फिर भी कहीं कहीं संदिग्ध पाठान्तर भी लिए गए हैं। इतना विशेष उल्लेखनीय है कि, पाठशुद्धि के लिये भूतपूर्व सम्पादकों द्वारा अत्यधिक प्रयत्न किये जाने पर भी सामग्री के अभाव में कितने ही पाठों को वैसे ही अशुद्ध छोड दिये थे, और ऐसे स्थलों में अन्य अन्य प्रतों में जो पाठान्तर थे उनका उन्होंने टिप्पणी में उल्लेख कर रखा था / अशद्ध पाठ के आधार से विवेचन कसे किया जाय ? इस समस्या को हल करने के लिये हमने अनेक स्थल में हस्तप्रतों को खोज की / लिम्बडी जैन संव के भण्डार की प्रति का भूतपूर्व सम्पादकों ने खास उपयोग किया नहीं था, किन्तु अर्थसंगत पाठ की खोज के लिये कुछ स्थान में यह प्रति हमारे लिये

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