Book Title: Samish Niramish Ahar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 9
________________ ६८ जैन धर्म और दर्शन धर्मानुयायी भी हो। एक ही कुटुम्ब की ऐसी निरामिष-सामिष-भोजन की मिश्रित व्यवस्था में भी निर्ग्रन्थों को भिक्षा के लिए जाना पड़ता था। आपवादिक स्थिति इसके सिवाय कोई कोई साहसिक निर्ग्रन्थ प्रचारक नए-नए प्रदेश में अपना निरामिष-भोजन का तथा अहिंसा-प्रचार का ध्येय लेकर जाते थे जहाँ कि उनको पक्के अनुयायी मिलने के पहले मौजूदा खान-पान की व्यवस्था में से भिक्षा लेकर गुजर-बसर करना पड़ता था। कभी-कभी ऐसे भी रोगादि सङ्कट उपस्थिति होते थे जब कि सुवैद्यों की सलाह के अनुसार निर्ग्रन्थों को खान-पान में अपवाद मार्ग का भी अवलंबन करना पड़ता था। ये और इनके जैसी अनेक परिस्थितियाँ पुराने निग्रन्थ सङ्घ के इतिहास में वर्णित हैं । इन परिस्थितियों में निरामिष-भोजन और अहिंसा-प्रचार के ध्येय का आत्यन्तिक ध्यान रखते हुए भी कभी-कभी निर्ग्रन्थ अपनी एषणीय और कल्प्य आहार की मर्यादा को सख्त रूप से पालते हुए माँस-मत्स्यादि का ग्रहण करते हों तो कोई अचरज की बात नहीं। हम जन अाचारांग ओर दशवकालिकादि आगमों के सामिष-आहार सूचक सूत्र' ७ देखते हैं और उन सूत्रों में वर्णित मर्यादात्रों पर विचार करते है तब स्पष्ट प्रतीत होता है कि सामिष याहार का विधान बिलकुल अापवादिक और अपरिहार्य स्थिति का है। 'अहिंसा-संयम-तप' का मुद्रालेख ऊपर सूचित आपवादिक स्थिति का ठीक-ठीक समय और देश विषयक निर्णय करना सरल नहीं है फिर भी हम इतना कह सकते हैं कि जब निर्ग्रन्थ संघ प्रधानतया बिहार में था और अंग-वंग-कलिंग आदि में नए प्रचार के लिए जाने लगा था तब की यह स्थिति होनी चाहिए। क्योंकि उन दिनों में ग्राज से भी कहीं अधिक साभिष-भोजन उक्त प्रदेशों में प्रचलित था । कुछ भी हो पर एक बात तो निश्चित है कि निर्ग्रन्थ-संघ अपने अहिंसा-संयम-तप के मूल मुद्रालेख के आधार पर निरामिप भोजन और अन्य व्यसन-त्याग के प्रचार कार्य में उत्तरोत्तर आगे ही बढ़ता और सफल होता गया है। इस संघ ने अनेक सामिषभोजी राजों-महाराजों को तथा अनेक दूसरे क्षत्रियादि गणों को अपने संघ में मिलाकर धीरे-धीरे उनको निरामिष भोजन की ओर अग्रसर किया है। संघ निर्माण की यह प्रक्रिया पिछली शताब्दियों में बिलकुल बंद-सी हो गई है पर पहले यह स्थिति न थी । १७. आचारांग २. १. २७४, २८१, दशवैकाबिक अ० ५. ७३, ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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