Book Title: Samish Niramish Ahar
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 19
________________ ७८ जैन धर्म और दर्शन भारतव्यापी अहिंसा की भावना में निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय का बहुत बड़ा हिस्सा हजारों वर्ष से रहा है। इतना बतलाने का उद्देश्य केवल यही है कि निग्रन्थ-सम्प्रदाय का अहिंसालक्षी मूल ध्येय कहाँ तक एक रूप रहा है और उसने सारे इतिहास काल में कैसा कैसा काम किया है। ___ अगर हमारा यह वक्तव्य ठीक है तो सामिष-आहारग्रहण सूचक सूत्रों के असली अर्थ के बारे में हमने अपना जो अभिप्राय प्रकट किया है वह ठीक तरह से ध्यान में आ सकेगा और उसके साथ निग्रन्थ-सम्प्रदाय की अहिंसा-भावना का कोई विरोध नहीं है यह बात भी समझ में आ सकेगी। निग्रन्थ-सम्प्रदाय में सामिष-आहार ग्रहण अगर आपवादिक या पुरानी सामाजिक परिस्थिति का परिणाम न होता तो निग्रन्थ-सम्प्रदाय अहिंसा-सिद्धान्त के ऊपर इतना भार ही न दे सकता और वह भार देता भी तो उसका असर जनता पर न पड़ता । बौद्ध भिक्षु अहिंसा के पक्षपाती रहे पर वे जहाँ गए वहाँ की भोजन-व्यवस्था के अधीन हो गए और बहुधा मांस-मत्स्यादि ग्रहण से न बच सके । सो क्यों ? जवाब स्पष्ट है-उनके लिए मांस-मत्स्यादि का ग्रहण निन्थसम्प्रदाय जितना सख्त आपवादिक और लाचारी रूप न था । निग्रन्थ अनगार बौद्ध अनगार की तरह धर्म-प्रचार का ही ध्येय रखते थे फिर भी वे बौद्धों की तरह भारत के बाहर जाने में असमर्थ रहे और भारत में भी बौद्धों की तरह हर एक दल को अपने सम्प्रदाय में मिलाने में असमर्थ रहे इसका क्या कारण ? जवाब स्पष्ट है कि निग्रन्थ सम्प्रदाय ने पहले ही से माँसादि के त्याग पर इतना अधिक भार दिया था कि निग्रन्थ अनगार न तो सरलता से मांसाशी जाति वाले देश में जा सकते थे और न मांस-मत्स्यादि का त्याग न करने वाली जातियों को ज्यों की त्यों अपने संघ में बौद्ध भितुओं की तरह ले सकते थे । यही कारण है कि निग्रन्थ-सम्प्रदाय न केवल भारत में ही सीमित है पर उसका कोई भी ऐसा गृहस्थ या साधु अनुयायी नहीं है जो हजार प्रलोभन होने पर भी मांस. मत्स्यादि का ग्रहण करना पसंद करे । ऐसे दृढ़ संस्कार के पीछे हजारो वर्ष से स्थिर कोई पुरानी श्रौत्सर्गिक भावना ही काम कर रही है ऐसा समझना चाहिए । इसी आधार पर हम कहते हैं कि जैन इतिहास में सामिषाहार सचक जो भी उल्लेख है और उनका जो भी असली अर्थ हो उससे जैनों को कभी घबड़ाने की या क्षुब्ध होने की जरूरत नहीं है उल्टे यह तो निम्रन्थ-सम्प्रदाय की एक विजय है कि जिसने उन आपवादिक प्रसंग वाले युग से पार होकर आगे अपने मूल ध्येय को सर्वत्र प्रतिष्ठित और विकसित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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