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सामिष निरामिष आहार
[ खाद्याखाद्यविवेक
सबसे पहले हम बौद्ध, वैदिक और जैन ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन के धार पर निग्रन्थ परम्परा के खाद्याखाद्य विवेक के विषय में कुछ विचार करना चाहते हैं | खाद्यास्त्राद्य से हमारा मुख्य मतलब यहाँ माँस- मत्स्यादि वस्तुओं से है ।
जैन समाज में क्षोभ व श्रान्दोलन
थोड़े ही दिन हुए जब कि जैन समाज में इस विषय पर उग्र ऊहापोह शुरू हुआ था । अध्यापक कौसांबीजी ने बुद्ध चरित में लिखा है कि प्राचीन जैन श्रमण भी माँस-मत्स्यादि ग्रहण करते थे । उनके इस लेख ने सारे जैन समाज में एक व्यापक क्षोभ और आन्दोलन पैदा किया था जो अभी शायद ही पूरा शान्त हुआ हो । करीब ५० वर्ष हुए इसी विषय को लेकर एक महान क्षोभ व श्रान्दो-लन शुरू हुआ था जब कि जर्मन विद्वान याकोबी ने आचाराङ्ग के अंग्रेजी अनु वाद में 'अमुक सूत्रों का अर्थ माँस- मत्स्यादि परक किया था । हमें यह नहीं समना चाहिए कि अमुक सूत्रों का ऐसा अर्थ करने से जैन समाज में जो क्षोभ व आन्दोलन हुआ वह इस नए युग की पाश्चात्य - शिक्षा का ही परिणाम है ।
जब हम १२००-१३०० वर्ष के पहले खुद जैनाचार्यों के द्वारा लिखी हुई प्राकृत- संस्कृत टीकाओं को देखते हैं तब भी पाते हैं कि उन्होंने अमुक सूत्रों का अर्थ माँस-मत्स्यादि भी लिखा है । उस जमाने में भी कुछ नोभ व आन्दोलन हुआ होगा इसकी प्रतीति भी हमें अन्य साधनों से हो जाती है ।
प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र के ऊपर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका लिखी है उसमें उन्होंने आगमों को लक्ष्य करके जो बात कही है वह सूचित करती है कि उस छठी सदी में भी अमुक सूत्रों का माँसमत्स्यादि पर अर्थ करने के कारण जैन समाज का एक बड़ा भाग क्षुब्ध हो
उठा था ।
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सामिष निरामिष आहार
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पूज्यपाद ने कर्मबन्ध के कारणों के विवेचन में लिखा है कि माँसादि का प्रति-पादन करना यह श्रुतावर्णवाद है १४ । निःसन्देह पूज्यपादकृत श्रुतावर्णवाद का आक्षेप उपलब्ध आचारांगादि श्रागमों को लक्ष्य करके ही है; क्योंकि माँसादि के ग्रहण का प्रतिपादन करने वाले जैनेतर श्रुत को तो भगवान् महावीर के पहले से ही निर्ग्रन्थ-परम्परा ने छोड़ ही दिया था । इतने अवलोकन से हम इतना निर्वि वाद कह सकते हैं कि आचाराङ्गादि आगमों के कुछ सूत्रों का माँस-मत्स्यादि बरक अर्थ है---यह मान्यता कोई नई नहीं है और ऐसी मान्यता प्रगट करने पर जैन समाज में क्षोभ पैदा होने की बात भी कोई नई नहीं है । यहाँ प्रसंगवश एक बात पर ध्यान देना भी योग्य है । वह यह कि तत्त्वार्थसूत्र के जिस अंश का व्याख्यान करते समय पूज्यपाद देवनन्दों ने श्वेताम्बरीय आगमों को लक्ष्य करके श्रुतावर्णवाद-दोष बतलाया है उसी श्रंश का व्याख्यान करते समय सूत्रकार उमास्वातिने अपने स्वोपज्ञ भाग्य में पूज्यपाद की तरह श्रुतावर्णवाद-दोष का निरूपण नहीं किया है। इससे स्पष्ट है कि जिन श्रागमों के अर्थ को लक्ष्य करके पूज्यपाद ने श्रुतावर्णवाद दोष का लाञ्छन लगाया है उन श्रागमों के उस अर्थ के बारे में उमास्वाति का कोई आक्षेप न था । यदि वे उस माँसादि परक अर्थ मे पूज्यपाद की तरह सर्वथा असहमत या विरुद्ध होते तो वे भी श्रुतावर्णवाद का अर्थ पूज्यपाद जैसा करते और आगमों के विरुद्ध कुछ-न-कुछ जरूर कहते । माँस मत्स्यादि की अखाद्यता और पक्षभेद
आज का सारा जैन समाज, जिसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी सभी छोटे-बड़े फिरके आ जाते हैं, जैसा नख से शिखा तक माँस-मत्स्य आदि से परहेज करने वाला है और हो सके यहाँ तक माँस-मत्स्य आदि वस्तुओं को अखाद्य सिद्ध करके दूसरों से ऐसी चीजों का त्याग कराने में धर्म पालन मानता है और तदर्थ समाज के त्यागी - गृहस्थ सभी यथासम्भव प्रयत्न करते हैं वैसा ही उस समय का जैन समाज भी था और माँस-मत्स्य आदि के त्याग का प्रचार करने में दत्तचित्त था जब कि चूर्णिकार, आचार्य हरिभद्र और प्राचार्य अभयदेव ने आगमगत अमुक वाक्यों का माँस-मत्स्यादि परक अर्थ भी अपनी-अपनी श्रागमिक व्याख्याओं में लिखा । इसी तरह पूज्यपाद देवनन्दी और उमास्वाति के समय का जैन- समाज भी ऐसा ही था, उसमें भले ही श्वेताम्बर - दिगम्बर जैसे फिरके मौजूद हों पर माँस-मत्स्य आदि को अखाद्य मान कर चालू जीवन-व्यवहार में से
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१४. सर्वार्थसिद्धि ६. १३.
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जैन धर्म और-दर्शन उसका सर्वथा त्याग करने के विषय में तो सभी फिरके वाले एक ही भूमिका पर थे। कहना तो यह चाहिए कि श्वोताम्बर-दिगम्बर जैसा फिरकाभेद उत्पन्न होने के पहले ही से माँस-मत्स्यादि वस्तुओं को अखाद्य मानकर उनका त्याग करने की पक्की भूमिका जैन समाज की सिद्ध हो चुकी थी। जब ऐसा था तब सहज ही में प्रश्न होता है कि श्रागमगत अमुक सूत्रों का माँस-मत्स्यादि अर्थ करने वाला एक पक्ष और उस अर्थ का विरोध करने वाला दूसरा पक्ष ऐसे परस्पर विरोधी दो पक्ष जैन-समाज में क्यों पैदा हुए ? क्योंकि दोनों के वर्तमान जीवन-धोरण में तो कोई खाद्याखाद्य के बारे में अंतर था ही नहीं। यह प्रश्न हमें इतिहास के सदा परिवर्तनशील चक्र की गति तथा मानव स्वभाव के विविध पहलुओं को देखने का संकेत करता है। इतिहास का अंगुलिनिर्देश
इतिहास पद-पद पर अंगुलि उठा कर हमें कहता रहता है कि तुम भले ही अपने को पूर्वजों के साथ सर्वथा एक रूप बने रहने का दावा करो, या ढोंग करो पर मैं तुमको या किसी को एक रूप न रहने देता हूँ और न किसी को एक रूप देखता भी हूँ। इतिहास की श्रादि से मानव जाति का कोई भी दल एक ही प्रकार के देशकाल, संयोगों या वातावरण में न रहा, न रहता है । एक दल एक ही स्थान में रहता हुआ भी कभी कालकृत और अन्य संयोगकृत विविध परिस्थतियों में से गुजरता है, तो कभी एक ही समय में मौजूद ऐसे जुदे-जुदे मानवदल देशकृत तथा अन्य संयोग-कृत विविध परिस्थितियों में से गुजरते देखे जाते हैं । यह स्थिति जैसी अाज है वैसी ही पहले भी थी। इस तरह परिवर्तन के अनेक ऐतिहासिक सोपानों में से गुजरता हुआ जैन समाज भी आज तक चला पा रहा है । उसके अनेक आचार-विचार जो आज देखे जाते हैं वे सदा वैसे ही थे ऐसा मानने का कोई आधार जैन वाङ्मय में नहीं है । मामूली फर्क होते रहने पर भी जब तक आचारविचार की समता बहुतायत से रहती है तब तक सामान्य व्यक्ति यही समझता है कि हम और हमारे पूर्वज एक ही आचार-विचार के पालक-पोषक हैं । पर यह फर्क जब एक या दूसरे कारण से बहुत बड़ा हो जाता है तब वह सामान्य मनुष्य के थोड़ा सा ध्यान में आता है, और वह सोचने लग जाताहै कि हमारे अमुक आचारविचार खुद हमारे पूर्वजों से ही भिन्न हो गए हैं। आचार-विचार का सामान्य अंतर साधारण व्यक्ति के ध्यान पर नहीं आता, पर विशेषज्ञ के ध्यानसे वह अोझल नहीं होता । जैन समाज के प्राचार-विचार के इतिहास का अध्ययन करते हैं तो ऊपर कही हुई सभी बातें जानने को मिलती हैं।
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सामिष-निरामिष-आहार मानव-स्वभाव के दो विरोधी पहलू
मनुष्य स्वभाव का एक पहलू तो यह है कि वर्तमान समय में जिस आचारविचार की प्रतिष्ठा बँधी हो और जिसका वह आत्यंतिक समर्थन करता हो उसके ही खिलाफ उसी के पूर्वजों के आचार-विचार यदि वह सुनता है या अपने इतिहास में से वैसी बात पाता है तो पुराने आचार-विचार के सूचक ऐतिहासिक दस्तावेज जैसे शास्त्रीय वाक्यों को भी तोड़-मरोड़ कर उनका अर्थ वर्तमान काल में प्रतिष्ठित ऐसे प्राचार-विचार की भूमिका पर करने का प्रयत्न करता है। वह चारों
ओर उच्च और प्रतिष्ठित समझे जानेवाले अपने मौजूदा आचार-विचार से बिलकुल विरुद्ध ऐसे पूर्वजों के प्राचार-विचार को सुनकर या जानकर उन्हें न्यों-का-त्यों मानकर उनके और अपने बीच में आचार-विचार की खाई का अंतर समझने में तथा उनका वास्तविक समन्वय करने में असमर्थ होता है । यही कारण है कि वह पुराने आचार-विचार सूचक वाक्यों को अपने ही आचार-विचार के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न पूरे बल से करता है। यह हुआ मानव स्वभाव के पहलू का एक अन्त ।
अब हम उसका दूसरा अन्त भी देखें । दूसरा अन्त ऐसा है कि वह वर्तमान आचार-विचार की भूमिका पर कायम रहते हुए भी उससे जुदी पड़नेवाली और कभी-कभी बिलकुल विरुद्ध जानेवाली पूर्वजों की प्राचार-विचार विषयक भूमिका को मान लेने में नहीं हिचकिचाता । इतिहास में पूर्वजों के भिन्न और विरुद्ध ऐसे आचार-विचारों की यदि नोंध रही तो उस नोंध को वह वफादारी से चिपके रहता है। ऐसा करने में वह अपने विरोधी पक्ष के द्वारा की जानेवाली निन्दा या आक्षेप की लेश भी परवाह नहीं करता। वह शास्त्र-वाक्यों के पुराने, प्रचलित और कभी सम्भावित ऐसे अर्थों का, प्रतिष्ठा जाने के डर से त्याग नहीं करता । वह भले ही कभी-कभी वर्तमान लोकमत के वश होकर उन वाक्यों का नया भी अर्थ करे तब भी वह अन्ततः विकल्प रूप से पुराने प्रचलित और कभी सम्भावित अर्थ को भी व्याख्याओं में सुरक्षित रखता है। यह हुआ मानव-स्वभाव के पहलू का दूसरा अन्त ।
ऐतिहासिक तुलना
उपर्युक्त दोनों अन्त बिलकुल आमने-सामने व परस्पर विरोधी हैं । इन दोनों अन्तों में से केवल जैन समाज ही नहीं बल्कि बौद्ध और वैदिक समाज भी गुजरे हुए देखे जाते हैं। जब भारत में अहिंसामूलक खान-पान की व्यापक और प्रबल प्रतिष्ठा जमी तब मांस-मत्स्य जैसी वस्तुओं का प्रात्यन्तिक विरोध न करनेवाले बौद्ध
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जैन धर्म और दर्शन सम्प्रदाय में भी एक पक्ष ऐसा पैदा हुआ कि जिसने बौद्ध सम्प्रदाय में मांस.' मत्स्यादि के त्याग का यहाँ तक समर्थन किया कि ऐसा मांस त्याग तो खुद बुद्ध के समय में और बुद्ध के जीवन में भी था । १५ इस पक्ष ने अपने समय में जमी हई खाद्याखाद्य विवेक की प्रतिष्ठा के आधार पर ही पुराने चौद्ध सूत्रों के अर्थ करने का प्रयास किया है। जब कि बौद्ध सम्प्रदाय में पहले ही से एक सनातनमानस दूसरा पक्ष भी चला आता रहा है जो खाद्याखाद्य विषयक पुराने सूत्रों को तोड़-मरोड़ कर उनके अर्थों को वर्तमान ढाँचे में बैठाने का आग्रह नहीं रखता । यही स्थिति वैदिक सम्प्रदाय के इतिहास में भी रही है। वैष्णव, आर्य समाज आदि अनेक शाखाओं ने पुराने वैदिक विधानों के अर्थ बदलने की कोशिश की है तब भी सनातन-मानस मीमांसक सम्प्रदाय ज्यों का त्यों स्थिर रहकर अपने पुराने अर्थों से टस से मस नहीं होता हालाँकि जीवन-व्यवहार में मीमांसक भी मांसादि को वैसा ही अखाद्य समझते हैं जैसे वैष्णव और आर्य समाज आदि वैदिक फिरके। इस विषय में बौद्ध और वैदिक सम्प्रदाय का ऐतिहासिक अवलोकन हम अन्त में करेंगे जिससे जैन सम्प्रदाय की स्थिति बराबर समझी जा सके। विरोध-ताण्डव
ऊपर सूचित दो पहलुओं के अन्तों का परस्पर विरोध-तांडव जैन समाज की रंगभमि पर भी हजारों वर्षों से खेला जाता रहा है। पूज्यपाद जैसे दिगंबराचार्य अमुक सूत्रों का मांस मत्स्यादि अर्थ करने के कारण ऐसे सूत्रवाले सारे अन्यों को छोड़ देने की या तो सूचना करते हैं या ऐसा अर्थ करनेवालों को श्रुतनिन्दक कह कर अपने पक्ष को उनसे ऊँचा साबित करने की सूचना करते हैं। दिगंबर संप्रदाय द्वारा श्वेताम्बर स्वीकृत आगमों को छोड़ देने का असली कारण तो और ही था और वह असली कारण आगमों में मर्यादित वस्त्र के विधान करनेवाले वाक्यों का भी होना है। पर जब श्रागमों को छोड़ना ही हो तब सम्भव हो इतने दुसरे दोष लोगों के समक्ष रखे जाएँ तो पुराने प्रचलित आगमों को छोड़ देने की बात ज्यादा न्यायसंगत साबित की जा सकती है ! इसी मनोदशा के वशीभूत होकर जानते या अनजानते ऐतिहासिक स्थिति का विचार बिना किए, एक सम्प्रदाय ने सारे आगमों को एक साथ छोड़ तो दिया पर उसने अाखिर को यह भी नहीं सोचा कि जो संप्रदाय आगमों को मान्य रखने का आग्रह रखता है वह भी तो उसके समान माँस-मत्स्य आदि की अखाद्यता को जीवन-व्यबहार में
१५. देखिये-लंकावतार-मांस परिवर्त परिच्छेद
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सामिष-निरामिष-आहार
६५ एक-सा स्थान देता है। इतना ही नहीं बल्कि वह श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय भी दिगंबर संप्रदाय के जितना ही मांस-मत्स्यादि की अखाद्यता का प्रचार व समर्थन करता है। और अहिंसा सिद्धान्त की प्ररूपणा व प्रचार में वह दिगम्बर परम्परा से श्रागे नहीं तो समकक्ष तो अवश्य है । ऐसा होते हुए भी श्वेताम्बर परम्परा के व्याख्याकार आगमों के अमुक सूत्रों का माँस मत्स्यादि परक अर्थ करते हैं सो क्या केवल अन्य परम्परा को चिढ़ाने के लिए ? या अपने पूर्वजों के ऊपर अस्त्राद्य खाने का आक्षेप जैनेतर संप्रदायों के द्वारा तथा समानतंत्री संप्रदाय के द्वारा कराने के लिए? प्राचीन अर्थ की रक्षा
पूज्यपाद के करीब आठ सौ वर्ष के बाद एक नया फिरका जैन संप्रदाय में पैदा हुआ, जो आज स्थानकवासी नाम से प्रसिद्ध है । उस फिरके के व्याख्याकारों ने श्रागमगत मांस-मत्स्यादिसूचक सूत्रों का अर्थ अपनी वर्तमान जीवन प्रणाली के अनुसार वनस्पतिपरक करने का आग्रह किया और श्वेताम्बरीय आगमों को मानते हुए भी उनकी पुरानी श्वेताम्बरीय व्याख्याओं को मानने का अाग्रह न रखा। इस तरह स्थानकवासी सम्प्रदाय ने यह सूचित किया कि आगमों में जहाँ कहीं मांस मत्स्यादि सूचक सूत्र हैं वहाँ सर्वत्र वनस्पति परक ही अर्थ विवक्षित है और मांस-मत्स्यादिरूप अर्थ जो पुराने टीकाकारों ने किया है वह अहिंसा सिद्धान्त के साथ असंगत होने के कारण गलत है। स्थानकवासी फिरके और दिगम्बर फिरके के दृष्टिकोण में इतनी तो समानता है ही कि मांसमत्स्यादिपरक अर्थ करना यह मात्र काल्पनिक है और अहिंसक सिद्धान्त के साथ बेमेल है, पर दोनों में एक बड़ा फर्क भी है। दिगम्बर संप्रदाय को अन्य कारणों से ही सही श्वेताम्बर आगमों का सपरिवार बहिष्कार करना था जब कि स्थानकवासी परंपरा को आगमों का आत्यन्तिक बहिष्कार इष्ट न था; उसको वे ही
आगम सर्वथा प्रमाण इष्ट नहीं हैं जिनमें मूर्ति का संकेत स्पष्ट हो । इसलिए स्थानकवासी संप्रदाय के सामने आगमगत खाद्याखाद्य विषयक सूत्र के अर्थ बदलने का एक ही मार्ग खुला था जिसको उसने अपनाया भी । इस तरह हम सारे इतिहास काल में देखते हैं कि अहिंसा की व्याख्या और उसकी प्रतिष्ठा व प्रचार में तथा वर्तमान जीवन धोरण में दिगंबर एवं स्थानकवासी फिरके से किसी भी तरह नहीं उतरते हुए भी श्वेताम्बर संप्रदाय के व्याख्याकारों ने खाद्याखाद्य विषयक सूत्रों का मांस मत्स्यपरक पुराना अर्थ अपनाए रखने में अपना गौरव ही समा । भले ही ऐसा करने में उनको जैनेतर समाज की तरफ से तथा समानअन्झु फीरकों की तरफ से हजार-हजार आक्षेप सुनने र सहने पड़े।
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जैन धर्म और दर्शन अर्थभेद की मीमांसा __ पहले हम दो प्रश्नों पर कुछ विचार कर लें तो अच्छा होगा। एक तो वह कि अखाद्यसूचक समझे जानेवाले सूत्रों के वनस्पति और मांस-मत्स्यादि ऐसे जो दो अर्थ पुराने समय से व्याख्याओं में देखे जाते हैं उनमें से कौन-सा अर्थ है जो पीछे से किया जाने लगा ? दूसरा प्रश्न यह है कि किसी भी पहले अर्थ के रहते हुए क्या ऐसी स्थिति पैदा हुई कि जिससे दूसरा अर्थ करने की आवश्यकता पड़ी या ऐसा अर्थ करने की ओर तत्कालीन व्याख्याकारों को ध्यान देना पड़ा ? ___ कोई भी बुद्धिमान यह तो सोच ही नहीं सकता कि सूत्रों की रचना के समय रचनाकार को वनस्पति और मांस आदि दोनों अर्थ अभिप्रेत होने चाहिए । निश्चित अर्थ के बोधक सूत्र परस्पर विरोधी ऐसे दो अर्थों का बोध कराएँ और जिज्ञासुओं को संशय या भ्रम में डालें यह संभव हो नहीं है तब यही मानना पड़ता है कि रचना के समय उन सूत्रों का कोई एक ही अर्थ सूत्रकार को अभिप्रेत था । कौन-सा अर्थ अभिप्रेत था इतना विचारना भर बाकी रहता है। अगर हम मान लें कि रचना के समय सूत्रों का वनस्पतिपरक अर्थ था तो हमें यह अगत्या मानना पड़ता है कि मांस-मत्स्यादिरूप अर्थ पीछे से किया जाने लगा। ऐसी स्थिति में निर्ग्रन्थ-संघ के विषय में यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या कोई ऐसी अवस्था आई थी जब कि आपत्ति-यश निर्ग्रन्थ-संध मांस-मत्स्यादि का भी ग्रहण करने लगा हो और उसका समर्थन उन्हीं सूत्रों से करता हो। इतिहास कहता है कि निर्ग्रन्थ-संघ में कोई भी ऐसा छोटा-बड़ा दल नहीं हुआ जिसने आपत्ति काल में किये गए मांस-मत्स्यादि के ग्रहण का समर्थन वनस्पतिबोधक सूत्रों का मांसमत्स्यादि अर्थ करके किया हो । अलबत्ता निम्रन्थ संघ के लम्बे इतिहास में आपत्ति
और अपवाद के हजारों प्रसङ्ग पाए हैं पर किसी निर्ग्रन्थ-दल ने आपवादिक स्थिति का समर्थन करने के लिए अपने मूल सिद्धान्त-अहिंसा से दूर जाकर सूत्रों का बिलकुल विरुद्ध अर्थ नहीं किया है। सभी निग्रन्थ अपवाद का अपवादरूप से जुदा ही वर्णन करते रहे हैं। जिसकी साक्षी छेदसूत्रों में पदपद पर है। निर्ग्रन्थ-संघ का बंधारण भी ऐसा रहा है कि कोई ऐसे विकृत अर्थ को सूत्रों की व्याख्या में पीछे स्थान दे तो वह निग्रन्थ सङ्घ का अङ्ग रह ही नहीं सकता। तब यही मानना पड़ता है कि रचनाकाल में सूत्रों का असली अर्थ तो मांस-मत्स्य ही था और पीछे-से वनस्पति-अर्थ भी किया जाने लगा। ऐसा क्यों किया जाने लगा ? यही दूसरा प्रश्न अब हमारे सामने श्राता है। संघ की निर्माण प्रक्रिया
निर्ग्रन्थ-संघ के निर्माण की प्रक्रिया तो अनेक शताब्दी पहले से भारतवर
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में धीरे-धीरे पर सतत चालू थी । इस प्रक्रिया का मुख्य आधार अहिंसा, संयम
और तप हो पहले से रहा है । अनेक छोटी-बड़ी जातियों और छिटपुट व्यक्तियों उसी आधार से आकृष्ट होकर निर्ग्रन्थ-संध में सम्मिलित होती रही हैं । जब कोई नया दल या नई व्यक्ति संधमें प्रवेश करते हैं तब उसके लिए वह संक्रम-काल होता है । संघ में स्थिर हुए दल तथा व्यक्ति और संघ में नया प्रवेश करने वाले दल तथा व्यक्ति के बीच अमुक समय तक आहार-विहारादि में थोड़ा-बहुत अंतर रहना अनिवार्य है। माँस-मत्स्य आदि का व्यवहार करने वाली जातियाँ या व्यक्तियाँ यकायक निर्ग्रन्थ-संघ में शामिल होते ही अपना सारा पुराना संस्कार बदल दें यह सर्वत्र संभव नहीं । प्रचारक निर्ग्रन्थ तपस्वी भी संघ में भर्ती होने वाली नई जातियों तथा व्यक्तियों का संस्कार उनकी रुचि और शक्ति के अनुसार ही बदलना ठीक समझते थे जैसे आजकल के प्रचारक भी अपने-अपने उद्देश्य के लिए वैसा ही करते हैं । एक बार निर्ग्रन्थ संघ में दाखिल हुए और उसके सिद्धान्तानुसार जीवन-व्यवहार बना लेने वालों की जो संतति होती है उसको तो निर्ग्रन्थ संघानुकूल संस्कार जन्मसिद्ध होता है पर संघ में नए भर्ती होने वालों के निग्रन्थ संघानुकूल संस्कार जन्मसिद्ध न होकर प्रयत्नसाध्य होते हैं । जन्मसिद्ध और प्रयत्नसाध्य संस्कारों के बीच अंतर यह होता है कि एक तो बिना प्रयत्न और बिना विशेष तालीम के ही जन्म से चला आता है जब कि दूसरा बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से धीरे-धीरे आता है । दूसरे संस्कार की अवस्था ही संक्रम-काल है । कोई यह न समझे कि निग्रन्थ-संघ के सभी अनुयायी अनादि-कालसे जन्मसिद्ध संस्कार लेकर ही चलते आ रहे हैं।
निर्ग्रन्थ-संघ का इतिहास कहता है कि इस संघ ने अनेक जातियों और व्यक्तियों को निर्ग्रन्थ सङ्घ की दीक्षा दी । यही कारण है कि मध्य काल की तरह प्राचीन काल में हम एक ही कुटुम्ब में निग्रन्थ संघ के अनुयायी और इतर बौद्ध
आदि श्रमण तथा ब्राह्मण-संप्रदाय के अनुयायी पाते हैं । विशेष क्या हम इति. हास से यह भी जानते हैं कि पति निग्रन्थ संव का अंग है तो पत्नी इतर धर्म की अनुयायिनी है ६ | जैसा आज का निग्रन्थ-संघ मात्र जन्मसिद्ध देखा जाता है वैसा मध्यकाल ओर प्राचीन काल में न था। उस समय प्रचारक निर्घन्ध अपने संघ की वृद्धि और विस्तार में लगे थे इससे उस समय यह संभव था कि एक ही कुटुम्ब में कोई निरामिषभोजी निर्ग्रन्थ उपासक हो तो सामिषभोजी अन्य
१६. उपासकदशांग श्र०८ ।
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जैन धर्म और दर्शन धर्मानुयायी भी हो। एक ही कुटुम्ब की ऐसी निरामिष-सामिष-भोजन की मिश्रित व्यवस्था में भी निर्ग्रन्थों को भिक्षा के लिए जाना पड़ता था। आपवादिक स्थिति
इसके सिवाय कोई कोई साहसिक निर्ग्रन्थ प्रचारक नए-नए प्रदेश में अपना निरामिष-भोजन का तथा अहिंसा-प्रचार का ध्येय लेकर जाते थे जहाँ कि उनको पक्के अनुयायी मिलने के पहले मौजूदा खान-पान की व्यवस्था में से भिक्षा लेकर गुजर-बसर करना पड़ता था। कभी-कभी ऐसे भी रोगादि सङ्कट उपस्थिति होते थे जब कि सुवैद्यों की सलाह के अनुसार निर्ग्रन्थों को खान-पान में अपवाद मार्ग का भी अवलंबन करना पड़ता था। ये और इनके जैसी अनेक परिस्थितियाँ पुराने निग्रन्थ सङ्घ के इतिहास में वर्णित हैं । इन परिस्थितियों में निरामिष-भोजन और अहिंसा-प्रचार के ध्येय का आत्यन्तिक ध्यान रखते हुए भी कभी-कभी निर्ग्रन्थ अपनी एषणीय और कल्प्य आहार की मर्यादा को सख्त रूप से पालते हुए माँस-मत्स्यादि का ग्रहण करते हों तो कोई अचरज की बात नहीं। हम जन अाचारांग ओर दशवकालिकादि आगमों के सामिष-आहार सूचक सूत्र' ७ देखते हैं और उन सूत्रों में वर्णित मर्यादात्रों पर विचार करते है तब स्पष्ट प्रतीत होता है कि सामिष याहार का विधान बिलकुल अापवादिक और अपरिहार्य स्थिति का है। 'अहिंसा-संयम-तप' का मुद्रालेख
ऊपर सूचित आपवादिक स्थिति का ठीक-ठीक समय और देश विषयक निर्णय करना सरल नहीं है फिर भी हम इतना कह सकते हैं कि जब निर्ग्रन्थ संघ प्रधानतया बिहार में था और अंग-वंग-कलिंग आदि में नए प्रचार के लिए जाने लगा था तब की यह स्थिति होनी चाहिए। क्योंकि उन दिनों में ग्राज से भी कहीं अधिक साभिष-भोजन उक्त प्रदेशों में प्रचलित था । कुछ भी हो पर एक बात तो निश्चित है कि निर्ग्रन्थ-संघ अपने अहिंसा-संयम-तप के मूल मुद्रालेख के आधार पर निरामिप भोजन और अन्य व्यसन-त्याग के प्रचार कार्य में उत्तरोत्तर आगे ही बढ़ता और सफल होता गया है। इस संघ ने अनेक सामिषभोजी राजों-महाराजों को तथा अनेक दूसरे क्षत्रियादि गणों को अपने संघ में मिलाकर धीरे-धीरे उनको निरामिष भोजन की ओर अग्रसर किया है। संघ निर्माण की यह प्रक्रिया पिछली शताब्दियों में बिलकुल बंद-सी हो गई है पर पहले यह स्थिति न थी ।
१७. आचारांग २. १. २७४, २८१, दशवैकाबिक अ० ५. ७३, ७४
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सामिष-निरामिष-आहार
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अहिंसा, संयम और तप के उग्र प्रचार का सामान्य जनता पर ऐसा प्रभाव पड़ा हुश्रा इतिहास में देखा जाता है कि जिससे बाधित होकर निरामिष-भोजन का अत्यन्त आग्रह नहीं रखने वाले बौद्ध तथा वैदिक सम्प्रदाय को निम्रन्थ संघ का कई अंश में अनुकरण करना पड़ा है । १८ विरोधी प्रश्न और समाधान
निःसंदेह भारत में अहिंसा की प्रतिष्ठा जमाने में अनेक पंथों का हाथ रहा है पर उसमें जितना हाथ निग्रन्थ संघ का रहा है उतना शायद ही किसी का रहा हो । अहिंसा-संयम-तपका आत्यन्तिक अाग्रह रखकर प्रचार करने वाले निग्रन्थों के लिए जब जन्म सिद्ध अनुयायी-दल ठीक-ठीक प्रमाण में करीब-करीन चारों ओर मिल गया तब निग्रन्थ-संघ की स्थिति बिलकुल बदल गई। अहिंसा की व्यापक प्रतिष्ठा इतनी हुई थी कि निग्रन्थों के सामने बाहर और भीतर से विविध आक्रमण होने लगे । विरोधी पंथ के अनुयायी तो निग्रन्थों को यह कहकर कोसते थे कि अगर तुम त्यागी अहिंसा का आत्यन्तिक आग्रह रखते हो तो तुम जीवन ही धारण नहीं कर सकते हो क्योंकि आखिर को जीवन धारण करने में कुछ भी तो हिंसा संभव है ही। इसी तरह वे यह भी उलाहना देते थे कि तुम निरामिष भोजन का इतना आग्रह रखते हो पर तुम्हारे पूर्वज निग्रन्थ तो सामिष अाहार भी ग्रहण करते थे। इसी तरह जन्मसिद्ध निरामिष-भोजन के संस्कार वाले स्थिर निग्रन्थ
१८. हम विनयपिटक में देखते हैं कि बौद्ध भिक्षुओं के लिए अनेक प्रकार के मांसों के खाने का स्पष्ट निषेध है और अपने निमित्त से बने माँस लेने का भी विशेष निषेध है । इतना ही नहीं बल्कि बौद्ध भिक्षुओं को जमीन खोदने खुदवाने तथा वनस्पति को काटने-कटवाने का भी निषेध किया है | घास आदि जन्तुओं की हिंसा से बचने के लिए वर्षावास का भी विधान है। पाठक आचारांग में वर्णित निग्रन्थों के प्राचार के साथ तुलना करेंगे तो कम से कम इतना तो जान सकेंगे कि अमुक अंशों में निग्रन्थ श्राचारों का ही बौद्ध श्राचार पर प्रभाव पड़ा है क्योंकि निग्रन्थ परम्परा के प्राचार पहले से स्थिर थे और बहुत सख्त भी ये जब कि बौद्ध भिक्षुओं के लिए ऐसे प्राचारों का विधान लोकनिंदा के भय से पीछे से किया हुआ है ।---विनयपिटक पृ० २३, २४, १७०, २३१, २४५ (हिन्दी आवृत्ति)
जहाँ-जहाँ निग्रन्थ परंपरा का प्राधान्य रहा है वहाँ के वैष्णव ही नहीं, शैव शाक्तादि फिरके-जो माँस से परहेज नहीं करते-वे भी माँस-मत्स्यादि खाने से परहेज करते हैं।
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जैन धर्म
और दर्शन
संघ के भीतर से भी प्राचार्यों के सामने प्रश्न आए । प्रश्नकर्ता स्वयं तो जन्म से निरामिष-भोजी ओर अहिंसा के प्रात्यन्तिक समर्थक थे पर वे पुराने शास्त्रों में से सामिष-भोजन का प्रसंग भी सुनते थे इसलिए उनके मनमें दुविधा पैदा होती थी कि जब हमारे प्राचार्य अहिंसा, संयम और तप का इतना उच्च आदर्श हमारे सामने रखते हैं तब इसके साथ पुराने निग्रन्थों के द्वारा सामिष-भोजन लिए जाने के शास्त्रीय वर्णन का मेल कैसे बैठ सकता है ? जब किसी तत्त्व का प्रात्यन्तिक आग्रहपूर्वक प्रचार किया जाता है तब विरोधी पक्षों की अोर से तथा अपने दल के भीतर से भी अनेक विरोधी प्रश्न उपस्थित होते ही हैं। पुराने निम्रन्थ-आचार्यों के सामने भी यही स्थिति पाई।
उस स्थिति का समाधान बिना किए अब चारा नहीं था अतएव कुछ प्राचार्यों ने तो श्रामिषसूचक सूत्रों का अर्थ ही अपनी वर्तमान जीवन स्थिति के अनुकूल वनस्पति किया । पर कुछ निर्ग्रन्थ आचार्य ऐसे भी दृढ़ निकले कि उन्होंने ऐसे सूत्रों का अर्थ न उदल करके केवल वही बात कह दी जो इतिहास में कभी घटित हुई थी अर्थात् उन्होंने कह दिया कि ऐसे सूत्रों का अर्थ तो माँस-मत्स्यादि ही है पर उसका ग्रहण निग्रन्थों के लिए औत्सर्गिक नहीं मात्र आपवादिक स्थिति है।
नया अर्थ करने वाला एक सम्प्रदाय और पुराना अर्थ मानने वाला दूसरा सम्प्रदाय -- ये दोनों परस्पर समाधान पूर्वक निम्रन्थ-संध में अमुक समय तक चलते रहे क्योंकि दोनों का उद्देश्य अपने अपने ढंग से निर्ग्रन्थों के स्थापित निरा. मिष भोजन का बचाव और पोषण ही करना था। जब आगमों के साथ व्याख्याएँ भी लिखी जाने लगी तब उन विवादास्पद सूत्रों के दोनों अर्थ भी लिख लिये गए जिससे दोनों अर्थ करने वालों में वैमनस्य न हो।
पर दुर्दैव से निग्रन्थ संघ के तख्ते पर नया ही ताण्डव होने वाला था। वह ऐसा कि दो दलों में वस्त्र न रखने और रखने के मुद्दे पर प्रात्यंतिक विरोध की नौबत आई । फलतः एक पक्ष ने आगमों को यह कहकर छोड़ दिया कि वे तो काल्पनिक हैं जब कि दूसरे पक्ष ने उन आगमों को ज्यों का त्यों मान लिया और उनमें आने वाले माँसादि-ग्रहण विषयक सूत्रों के वनस्पति और माँस-ऐसे दो अर्थों को भी मान्य रखा ।
हम ऊपर की चर्चा से नीचे लिखे परिणाम पर पहुँचते हैं :- १-निग्रन्थ-संघ की निर्माण प्रक्रिया के जमाने में तथा अन्य प्रापवादिक प्रसंगों में निग्रन्थ भी सामिष आहार लेते थे जिसका पुराना अवशेष आगमों में रह गया है।
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सामिष-निरामिष-श्राहार २-जन्म से ही निरामिषभोजी निर्ग्रन्थ-संघ के स्थापित हो जाने पर वह श्रापवादिक स्थिति न रही और सर्वत्र निरामिष आहार सुलभ हो गया पर इस काल के निरामिष श्राहार-ग्रहण करने के प्रात्यन्तिक आग्रह के साथ पुराने सामिष आहार सूचक सूत्र बेमेल जॅचने लगे।
३-इसी बेमेल का निवारण करने की सवृत्ति में से दूसरा वनस्पति परक अर्थ किया जाने लगा और पुराने तथा नए अर्थं साथ ही साथ स्वीकृत हुए ।
४---जब इतर कारणों से निर्ग्रन्थ दलों में फूट हुई तब एक दल ने आगमों के बहिष्कार में सामिष आहार सूचक सूत्रों की दलील भी दूसरे दल के सामने तथा सामान्य जनता के सामने रखी।
एक वृन्त में अनेक फल
हम पहले बतला आए हैं कि परिवर्तन व विकासक्रम के अनुसार समाज में आचार-विचार की भूमिका पुराने प्राचार-विचारों से बदल जाती है तब नई परिस्थिति के कुछ व्याख्याकार पुराने आचार-विचारों पर होने वाले आक्षेपों से बचने के लिए पुराने ही वाक्यों में से अपनी परिस्थिति के अनुकूल अर्थ निकाल कर उन आक्षेपों के परिहार का प्रयत्न करते हैं जब कि दूसरे व्याख्याकार नई परिस्थिति के आचार-विचारों को अपनाते हुए भी उनसे बिलकुल विरुद्ध पुराने अाचार-विचारों के सूचक वाक्यों को तोड़-मरोड़ कर नया अर्थ निकालने के बदले पुराना ही अर्थ कायम रखते हैं और इस तरह प्रत्येक विकासगामी धर्मसमाज में पुराने शास्त्रों के अर्थ करने में दो पक्ष पड़ जाते हैं। जैसे वैदिक और बौद्ध संप्रदाय का इतिहास हमारे उक्त कथन का सबूत है वैसे ही निर्ग्रन्थ संप्रदाय का इतिहास भी हमारे मन्तव्य की साक्षी दे रहा है। हम निरामिष और सामिष आहार-ग्रहण के बारे में अपना उक्त विधान स्पष्ट कर चुके हैं फिर भी यहाँ निर्ग्रन्थ-संप्रदाय के बारे में प्रधानतया कुछ वर्णन करना है इसलिए हम उस विधान को दूसरी एक वैसी ही ऐतिहासिक घटना से स्पष्ट करें तो यह उपयुक्त ही होगा।
भारत में मूर्ति पूजा या प्रतीक-उपासना बहुत पुरानी और व्यापक भी है। निग्रन्थ-परम्परा का इतिहास भी मूर्ति और प्रतीक की उपासना-पूजा से भरा पड़ा है । पर इस देश में मूर्ति विरोधी और मूर्तिभंजक इस्लाम के आने के बाद मूर्तिपूजा की विरोधी अनेक परम्पराओं ने जन्म लिया । निर्ग्रन्थ-परम्परा भी इस प्रतिक्रिया से न बची। १५ वीं सदी में लौंकाशाह नामक एक व्यक्ति गुजरात में पैदा हुए जिन्होंने मूर्तिपूजा और उस निमित्त होनेवाले आडम्बरों का सक्रिय
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जैन धर्म और दर्शन विरोध शुरू किया जो क्रमशः एक मर्तिविरोधी फिरके में परिणत हो गया । नया आन्दोलन या विचार कोई भी हो पर सम्प्रदाय में वह तभी स्थान पाता और सफल होता है जब उसको शास्त्रों का आधार हो। ऐसा आधार जब तक न हो तब तक नया फिरका पनप नहीं सकता । तिस पर भी यदि पुराने शास्त्रों में नए आन्दोलन के खिलाफ प्रमाण भरे पड़े हों तब तो नए आन्दोलन को आगे कूच करने में बड़ी रुकावटों का सामना करना पड़ता है। पुराने निर्ग्रन्थ अागमों में तथा उत्तरकालीन अन्य साहित्य में मूर्तिपूजा और प्रतीकोपासना के सूचक अनेक उल्लेख मौजूद हैं—ऐसी स्थिति में विरुद्ध उल्लेखवाले श्रागमों को मानकर मूर्तिपूजा के विरोध का समर्थन कैसे किया जा सकता था ? मूर्तिपूजा का विरोध परिस्थिति में आ गया था, आन्दोलन चालू था, पुराने विरुद्ध उल्लेख बाधक हो रहे थे-इस कठिनाई को हल करने के लिए नए मूर्तिपूजा विरोधी फिरके ने उसी ऐतिहासिक मार्ग का अवलम्बन लिया जिसका कि सामिष-निरामिष भोजन के विरोध का परिहार करने में पहले भी निग्रन्थ मुनि ले चुके थे। अर्थात् मूर्तिपूजा के विरोधियों ने चैत्य, प्रतिमा, जिन-गृह आदि मूर्तिसूचक पाठों का अर्थ हो बदलना शुरू कर दिया। इस तरह हम निग्रन्थ-परम्परा के श्वेताम्बर फिरके में ही देखते हैं कि एक फिरका जिन पाठों का मूर्तिपरक अर्थ करता है, दूसरा फिरका उन्हीं पाठों का अन्यान्य अर्थ करके मूर्तिपूजा के विरोधवाले अपने पक्ष का समर्थन करता है। पाठक सरलता से समझ सके होंगे कि पुराने पाठरूप एक ही डण्ठल में-वृन्त में परिस्थिति मेद से कैसे अनेक फल लगते है। आगमों की प्राचीनता __ सामिष आहार सूचक पाठों का वनस्पतिपरक अर्थ करनेवालों का आशय तो बुरा न था। हाँ, उत्सर्ग-अपयाद के स्वरूप का ज्ञान तथा ऐतिहासिकता को वफादारी उनमें अवश्य कम थी। असली अर्थ को चिपके रहने वालों का मानस सनातन और रूढिगामी अवश्य था पर साथ ही उसमें उत्सर्ग:अपवाद के स्वरूप का विस्तृत ज्ञान तथा ऐतिहासिकता की वफादरी दोनों पर्याप्त थे । इस चर्चा पर से यह सरलता से ही जाना जा सकता है कि श्रागमों का कलेवर कितना पुराना है ? अगर आगम, भगवान् महावीर से अनेक शताब्दियों के बाद किसी एक फिरके के द्वारा नए रचे गए होते तो उनमें ऐसे सामिष आहार ग्रहण सूचक सूत्र आने का कोई सबब ही न था । क्योंकि उस जमाने के पहले ही से सारी निम्रन्थ-परम्परा निरपवादरूप से निरामिषभोजी बन चुकी थी और माँस मत्स्यादि का त्याग कुलधर्म
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सामिष-निरामिष-आहार ही हो गया था। भला ऐसा कौन होगा जो वर्तमान निरामिष भोजन की निरपवाद अवस्था में ऐसे सामिष-आहार-सूचक सूत्र बनाकर आगमों में घुसेड़ दे और अपनी परम्परा के अहिंसामूलक जीवन व्यवहार का मखौल कराने की स्थिति जान-बूझ कर पैदा करे । सारे भारतवर्ष के जुदे जुदे असली मानवदलों का और समय-समय पर आकर बस जानेवाले नए-नए मानवदलों का इतिहास हम देखते हैं तो एक बात निर्विवाद रूप से पाते हैं कि भारतवासी हर-एक धर्म-सम्प्रदाय निरामिष भोजन की ओर कुछ-न-कुछ अग्रसर हुआ है । इस इतिहास के पृष्ठ जितने पुराने उतना ही सामिष-आहार और धर्म्य पशुवध अधिक देखने को मिलता है । ऐसी स्थिति में श्रागमों में आने वाले सामिष-आहार सूचक सूत्र निग्रन्थ परम्परा के पुराने स्तर को ही सूचित करते हैं जो किसी-न-किसी तरह से श्रागमों में सुरक्षित रह गया है। केवल इस आधार से भी आगमों की प्राचीनता अनायास ही ध्यान में आती है ! उत्सर्ग-अपवाद की चर्चा ___ हम यहाँ प्रसंग वश उत्सर्ग-अपवाद की चर्चा भी संक्षेप में कर देना चाहते हैं जिससे प्रस्तुत विषय पर कुछ प्रकाश पड़ सके । निर्ग्रन्थ-परम्परा का मुख्य लक्ष्य आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति है । उसी को सिद्ध करने के लिए उसने अहिंसा का आश्रय लिया है। पूर्ण और उच्च कोटि की अहिंसा तभी सिद्ध हो सकती है जब जीवन में कायिक-वाचिक मानसिक असत् प्रवृत्तियों का नियंत्रण हो और सत्प्रवृत्तियों को वेग दिया जाए। तथा भौतिक सुख की लालसा घटाने के उद्देश्य से कठोर जीवन-मार्ग या इन्द्रिय-दमन मार्ग का अवलम्बन लिया जाए। इसी दृष्टि से निग्रन्थ-परम्परा ने समय और तप पर अधिक भार दिया है। अहिंसालदी संयम
और तपोमय जीवन ही निर्ग्रन्थ परम्परा का श्रौत्सर्गिक विधान है जो आध्यात्मिक सुख प्राप्ति की अनिवार्य गारण्टी है । पर जब कोई आध्यात्मिक धर्म समुदायगामी बनने लगता है तत्र अपवादों का प्रवेश अनिवार्य रूप से आवश्यक बन जाता है । अपवाद वही है जो तत्त्वतः औत्सर्गिक मार्ग का पोषक ही हो, कभी घातक न बने । आपवादिक विधान की मदद से ही औत्सर्गिक मार्ग विकास कर सकता है और दोनों मिलकर ही मूल ध्येय को सिद्ध कर सकते हैं। हम व्यवहार में देखते हैं कि भोजन-पान जीवन की रक्षा और पुष्टि के लिए ही है, पर हम यह भी देखते हैं कि कभी-कभी भोजन-पान का त्याग ही जीवन को बचा लेता है। इसी तरह ऊपर-ऊपर से आपस में विरुद्ध दिखाई देनेवाले भी दो प्रकार के जीवन व्यवहार जब एक लक्षगामी हों तब वे उत्सर्ग-अपवाद की कोटि में आते हैं।
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जैन धर्म और दर्शन उत्सर्ग को आत्मा कहें तो अपवादों को देह कहना चाहिए । दोनों का सम्मिलित उद्देश्य संवादी जीवन जीना है ।
जो निम्रन्थ मुनि घर-बार का बंधन छोड़कर अनगार रूप से जीवन जीते थे उनको आध्यात्मिक सुखलक्षी जीवन तो जीना ही था जो स्थान, भोजन-पान आदि की मदद के सिवाय जिया नहीं जा सकता । इसलिए अहिंसा-संयम और तप की उत्कट प्रतिज्ञा का औत्सर्गिक मार्ग स्वीकार करने पर भी वे उसमें ऐसे कुछ नियम बना लेते थे जिनसे पशु और मनुष्यों को तो क्या पर पृथ्वी-जल और वनस्पति आदि के जन्तु तक को त्रास न पहुँचे । इसी दृष्टि से अनगार मुनियों को जो स्थान, भोजन-पानादि वस्तुएँ स्थूल जीवन के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं उनके ग्रहण एवं उपयोग की व्यवस्था के ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म नियम बने हैं जो दुनिया की और किसी त्याग-परम्परा में देखे नहीं जाते । अनगार मुनियों ने दूसरों के परिहास को या स्तुति की परवाह किए बिना ही अपने लिए अपनी इच्छा से जीवन जीने के नियम बनाए हैं जो प्राचारांग आदि आगमों से लेकर आज तक के नए से नए जैन वाङ्मय में वर्णित हैं और जो वर्तमानकाल की शिथिल और अशिथिल कैसी भी अनगार-संस्था में देखने को मिलते हैं। इन नियमों में यहाँ तक कहा गया है कि अगर दाता अपनी इच्छा से व श्रद्धा-भक्ति से जरूरी चीज अनगार को देता हो तब भी उसका स्वीकार अमुक मर्यादा में रहकर ही करना चाहिए । ऐसी मर्यादाओं को कायम करने में कहीं तो ग्राम वस्तु कैसी होनी चाहिए यह बतलाया गया है और कहीं दाता तथा दानक्षेत्र कैसे होने चाहिए-यह बतलाया गया है । यह भी बतलाया गया है कि ग्राह्य वस्तु मर्यादा में आती हो, दाता व दानक्षेत्र नियमानुकूल हों फिर भी भिक्षा तो अमुक काल में ही करनी चाहिए---भले ही प्राण जाँय पर रात आदि के समय में नहीं । अनगार मुनि ऊख-खजूर आदि को इसलिए ले नहीं सकता कि उसमें खाद्य अंश कम और त्याज्य अंश अधिक होता है । अनगार निम्रन्थ प्राप्त भिक्षा सुगन्धि हो या दुर्गन्ध, रुचिकर हो या अरुचिकर, बिना दुःख-सुख माने खा-पी जाता है । ऐसी ही कठिन मर्यादाओं के बीच अपवाद के तौर पर सामिष आहार-ग्रहण की विधि भी अाती है । सामान्य रूप से तो अनगार मुनि सामिष-अाहार की भिक्षा लेने को इन्कार ही कर देता था पर बीमारी जैसे संयोग से बाधित होकर लेता भी था तो उसे स्वाद या पुष्टि की दृष्टि से नहीं, केवल निर्मम व अनासक्त दृष्टि से जीवनयात्रा के लिए लेता था। इस भिक्षाविधि का सांगोपांग वर्णन अाचारांगादि सूत्रों में है। उसको देखकर कोई भी तटस्थ विचारक यह कह नहीं सकता कि प्राचीनकाल में प्रापवादिक रूप से ली जानेवाली सामिष-आहार की भिक्षा किसी
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७५ भी तरह से अहिंसा, संयम और तपोमय-औत्सर्गिक मार्ग की बाधक हो सकती है । इसलिए हम तो यही समझते हैं कि जिन्होंने सामिष-आहार सूचक सूत्रों की और उनके असली अर्थों की रक्षा की है उन्होंने केवल निग्रन्थ-सम्प्रदाय के सच्चे इतिहास की ही रक्षा नहीं की है बल्कि गहरी समझ और निर्भय-वृत्तिका भी परिचय दिया है। अहिंसक भावना का प्रचार व विकास
सामिष-आहारग्रहण या ऐसे अन्य अपवादों की यष्टि की मदद से अहिंसालक्षी औत्सर्गिक जीवन मार्ग पर निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के इतिहास ने कितनी दूर कूच की है इसका संक्षिप्त चित्र भी हमारे सामने आ जाए तो हमें पुराने सामिष. आहार सूचक सूत्रों से तथा उनके असली अर्थों से किसी भी तरह से हिचकिचाने की आवश्यकता न रहेगी। इसलिए अब हम निग्रन्थ सम्प्रदाय के द्वारा किये गए अहिंसा-प्रधान प्रचार का तथा अहिंसक भावना के विकास का संक्षेप में अवलोकन करेंगे। __ भगवान् पार्श्वनाथ के पहले निग्रन्थ-परम्परा में यदुकुमार नेमिनाथ हो गए हैं उनकी अर्ध-ऐतिहासिक जीवन कथाओं में एक घटना का जो उल्लेख मिलता है । उसको निन्थ-परम्परा की अहिंसक भावना का एक सीमा चिन्ह कहा जा सकता है । लग्न-विवाहादि सामाजिक उत्सव-समारंभों में जीमने-जिमाने और आमोद-प्रमोद करने का रिवाज तो आज भी चालू है पर उस समय ऐसे समारंभों में नानाविध पशुओं का वध करके उनके माँस से जीमन को आकर्षित बनाने की प्रथा आम तौर से रही । खास कर क्षत्रियादि जातियों में तो वह प्रथा
और भी रूढ़ थी । इस प्रथा के अनुसार लग्न के निमित्त किए जाने वाले उत्सव में वध करने के लिए एकत्र किये गए हरिन आदि विविध पशुओं का आर्तनाद सुनकर नेमिकुमार ने ठीक लग्न के मौके पर ही करुणाई होकर अपने ऐसे लग्न का संकल्प ही छोड़ दिया जिसमें ऐसे पशुओं का वध करके माँस का खानाखिलाना प्रतिष्ठित माना जाता रहा । नेमिकुमार के इस करुणामूलक ब्रह्मचर्यवास का उस समय समाज पर ऐसा असर पड़ा और क्रमशः वह असर बढ़ता गया कि धीरे धीरे अनेक जातियों ने सामाजिक समारंभों में माँस खाने-खिलाने को प्रथा को ही तिलाञ्जलि दे दी। संभवतः यही ऐसी पहली घटना है जो सामाजिक व्यवहारों में अहिंसा की नींव पड़ने की सूचक है। नेमिकुमार यादवशिरोमणि देवकीनन्दन कृष्ण के अनुज थे। जान पड़ता है इस कारण से द्वारका और मथुरा के यादवों पर अच्छा असर पड़ा । इतिहास काल में भगवान पार्श्व
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जैन धर्म और दर्शन
नाथ का स्थान है । उनकी जीवनी कह रही है कि उन्होंने अहिंसा की भावना को विकसित करने के लिए एक दूसरा ही कदम उठाया । पञ्चाग्नि जैसी तामस तपस्यात्रों में सूक्ष्म-स्थूल प्राणियों का विचार बिना किए ही आग जलाने की प्रथा थी जिससे कभी-कभी इंधन के साथ अन्य प्राणी भी जल जाते थे । काशीराज अश्वपति के पुत्र पार्श्वनाथ ने ऐसी हिंसाजनक तपस्या का घोर विरोध किया
और धर्म-क्षेत्र में अविवेक से होने वाली हिंसा के त्याग की ओर लोकमत तैयार किया | पार्श्वनाथ के द्वारा पुष्ट की गई अहिंसा की भावना निग्रन्थनाथ ज्ञातपुत्र महावीर को विरासत में मिली। उन्होंने यज्ञ यागादि जैसे धर्म के जुदे-जुदे क्षेत्रों में होने वाली हिंसा का तथागत बुद्ध की तरह श्रात्यन्तिक विरोध किया और धर्मके प्रदेश में अहिंसा की इतनी अधिक प्रतिष्ठा की कि इसके बाद तो अहिंसा ही भारतीय धर्मों का प्राण बन गई। भगवान् महावीर की उग्र अहिंसा परायण जीवन-यात्रा तथा एकाग्र तपस्या ने तत्कालीन अनेक प्रभावशाली ब्राह्मण व क्षत्रियों को अहिंसा-भावना की ओर खींचा। फलतः जनता में सामाजिक तथा धार्मिक उत्सवों में अहिंसा की भावना ने जड़ जमाई, जिसके ऊपर आगे को निर्ग्रन्थ-परंपरा की अगली पीढ़ियों की कारगुजारी का महल खड़ा हुआ है । अशोक के पौत्र संप्रति ने अपने पितामह के अहिंसक संस्कार की विरासत को आयसुहस्ति की छत्रछाया में और भी समृद्ध किया। संप्रति ने केवल अपने अधीन राज्य-प्रदेशों में ही नहीं बल्कि अपने राज्य की सीमा के बाहर भ-जहाँ अहिंसामूलक जीवन-व्यवहार का नाम भी न था-अहिंसा भावना का फैलाव किया । अहिंसा-भावना के उस स्रोत की बाढ़ में अनेक का हाथ अवश्य है पर निर्गन्ध अनगारों का तो इसके सियाय और कोई ध्येय ही नहीं रहा है। वे भारत में पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण जहाँ-जहाँ गए वहाँ उन्होंने अहिंसा की भावना का ही विस्तार किया और हिंसामूलक अनेक व्यसनों के त्याग की जनता को शिक्षा देने में ही निर्ग्रन्थ-धर्म की कृतकृत्यता का अनुभव किया । जैसे शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों पर मठ स्थापित करके ब्रह्माद्वैत का विजय स्तम्भ रोपा है वैसे ही महावीर के अनुयायी अनगार निर्ग्रन्थों ने भारत जैसे विशाल देश के चारों कोनों में अहिंसाद्वैत की भावना के विजय स्तम्भ रोप दिए हैं—ऐसा कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी । लोकमान्य तिलक ने इस बात को यों कहा था कि गुजरात की अहिंसा भावना जैनों की ही देन है पर इतिहास हमें कहता है कि वैष्णवादि अनेक वैदिक परम्पराओं को अहिंसामूलक धर्मवृत्ति में निग्रन्थ संप्रदाय का थोड़ा बहुत प्रभाव अवश्य काम कर रहा है। उन वैदिक सम्प्रदायों के प्रत्येक जीवन न्यवहार की छानबीन करने से कोई भी विचारक यह सरलता से जान सकता है
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सामिष निरामिष आहार
७७ कि इसमें निग्रन्थों की अहिंसा-भावना का पुट अवश्य है । आज भारत में हिंसामूलक यज्ञ-यागादि धर्म-विधि का समर्थक भी यह साहस नहीं कर सकता है कि वह यजमानों को पशुवध के लिए प्रेरित करे। ___आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरपति परम माहेश्वर सिद्धराज तक को बहुत अंशों में अहिंसा की भावना से प्रभावित किया। इसका फल अनेक दिशाओं में अच्छा आया । अनेक देव-देवियों के सामने खास-खास पर्वो पर होने वाली हिंसा रुक गई । और ऐसी हिंसा को रोकने के व्यापक आन्दोलन की एक नींव पड़ गई। सिद्धराज का उत्तराधिकारी गुर्जरपति कुमारपाल तो परमाईत ही था । वह सच्चे अर्थ में परमाईत इसलिए माना गया कि उसने जैसी और जितनी अहिंसा की भावना पुष्ट की और जैसा उसका विस्तार किया वह इतिहास में बेजोड़ है। कुमारपाल की 'अमारि घोषणा' इतनी लोक-प्रिय बनी कि श्रागे के अनेक निग्रन्थ और उनके अनेक गृहस्थ-शिष्य अमारि-घोषणा को अपने जीवन का ध्येय बनाकर ही काम करने लगे। आचार्य हेमचन्द्र के पहले कई निर्ग्रन्थों ने माँसाशी जातियों को अहिंसा की दीक्षा दी थी और निग्रन्थ-संघ में श्रोसवालपोरवाल आदि वर्ग स्थापित किए थे। शक आदि विदेशी जातियाँ भी अहिंसा के चेप से बच न सकी । हीरविजयसूरि ने अकबर जैसे भारत-सम्राट् से भिक्षा में इतना ही माँगा कि वह हमेशा के लिए नहीं तो कुछ खास-खास तिथियों पर अमारि-घोषणा जारी करे। अकबर के उस पथ पर जहाँगीर आदि उनके वंशज भी चले । जो जन्म से ही माँसाशी थे उन मुगल सम्राटों के द्वारा अहिंसा का इतना विस्तार कराना यह अाज भी सरल नहीं है।
अाज भी हम देखते हैं कि जैन-समाज ही ऐसा है जो जहाँ तक संभव हो विविध क्षेत्रों में होने वाली पशु-पक्षी आदि की हिंसा को रोकने का सतत प्रयत्न करता है । इस विशाल देश में जुदे-जुदे संस्कार वाली अनेक जातियाँ पड़ोसपड़ोस में बसती हैं । अनेक जन्म से ही मांसाशी भी हैं। फिर भी जहाँ देखो वहाँ अहिंसा के प्रति लोक रुचि तो है ही । मध्यकाल में ऐसे अनेक सन्त और फकीर हुए जिन्होंने एक मात्र अहिंसा और दया का ही उपदेश दिया है जो भारत की आत्मा में अहिंसा की गहरी जड़ की साक्षी है।
महात्मा गाँधीजी ने भारत में नव-जीवन का प्राण प्रस्पंदित करने का संकल्प किया तो वह केवल अहिंसा की भूमिका के ऊपर ही । यदि उनको अहिंसा की भावना का ऐसा तैयार क्षेत्र न मिलता तो वे शायद ही इतने सफल होते। ___ यहाँ साम्प्रदायिक दृष्टि से केवल यह नहीं कहना है कि अहिंसा वृत्ति के पाषण का सारा यश निग्रन्थ सम्प्रदाब को ही हैवक्तब इतना ही है कि
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जैन धर्म और दर्शन भारतव्यापी अहिंसा की भावना में निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय का बहुत बड़ा हिस्सा हजारों वर्ष से रहा है। इतना बतलाने का उद्देश्य केवल यही है कि निग्रन्थ-सम्प्रदाय का अहिंसालक्षी मूल ध्येय कहाँ तक एक रूप रहा है और उसने सारे इतिहास काल में कैसा कैसा काम किया है। ___ अगर हमारा यह वक्तव्य ठीक है तो सामिष-आहारग्रहण सूचक सूत्रों के असली अर्थ के बारे में हमने अपना जो अभिप्राय प्रकट किया है वह ठीक तरह से ध्यान में आ सकेगा और उसके साथ निग्रन्थ-सम्प्रदाय की अहिंसा-भावना का कोई विरोध नहीं है यह बात भी समझ में आ सकेगी।
निग्रन्थ-सम्प्रदाय में सामिष-आहार ग्रहण अगर आपवादिक या पुरानी सामाजिक परिस्थिति का परिणाम न होता तो निग्रन्थ-सम्प्रदाय अहिंसा-सिद्धान्त के ऊपर इतना भार ही न दे सकता और वह भार देता भी तो उसका असर जनता पर न पड़ता । बौद्ध भिक्षु अहिंसा के पक्षपाती रहे पर वे जहाँ गए वहाँ की भोजन-व्यवस्था के अधीन हो गए और बहुधा मांस-मत्स्यादि ग्रहण से न बच सके । सो क्यों ? जवाब स्पष्ट है-उनके लिए मांस-मत्स्यादि का ग्रहण निन्थसम्प्रदाय जितना सख्त आपवादिक और लाचारी रूप न था । निग्रन्थ अनगार बौद्ध अनगार की तरह धर्म-प्रचार का ही ध्येय रखते थे फिर भी वे बौद्धों की तरह भारत के बाहर जाने में असमर्थ रहे और भारत में भी बौद्धों की तरह हर एक दल को अपने सम्प्रदाय में मिलाने में असमर्थ रहे इसका क्या कारण ? जवाब स्पष्ट है कि निग्रन्थ सम्प्रदाय ने पहले ही से माँसादि के त्याग पर इतना अधिक भार दिया था कि निग्रन्थ अनगार न तो सरलता से मांसाशी जाति वाले देश में जा सकते थे और न मांस-मत्स्यादि का त्याग न करने वाली जातियों को ज्यों की त्यों अपने संघ में बौद्ध भितुओं की तरह ले सकते थे । यही कारण है कि निग्रन्थ-सम्प्रदाय न केवल भारत में ही सीमित है पर उसका कोई भी ऐसा गृहस्थ या साधु अनुयायी नहीं है जो हजार प्रलोभन होने पर भी मांस. मत्स्यादि का ग्रहण करना पसंद करे । ऐसे दृढ़ संस्कार के पीछे हजारो वर्ष से स्थिर कोई पुरानी श्रौत्सर्गिक भावना ही काम कर रही है ऐसा समझना चाहिए ।
इसी आधार पर हम कहते हैं कि जैन इतिहास में सामिषाहार सचक जो भी उल्लेख है और उनका जो भी असली अर्थ हो उससे जैनों को कभी घबड़ाने की या क्षुब्ध होने की जरूरत नहीं है उल्टे यह तो निम्रन्थ-सम्प्रदाय की एक विजय है कि जिसने उन आपवादिक प्रसंग वाले युग से पार होकर आगे अपने मूल ध्येय को सर्वत्र प्रतिष्ठित और विकसित किया है।
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सामिष - निरामिष आहार
बौद्ध - परम्परा में माँस के ग्रहण - अग्रहण का ऊहापोह
जैन - परम्परा हिंसा सिद्धान्त का अन्तिम हद तक समर्थन करने वाली है इसलिए उसके प्रमाणभूत ग्रन्थों में कहीं भी भिक्षुओं के द्वारा मांस-मत्स्यादि के लिये जाने की थोड़ी सी बात आ जाए तो उस परम्परा की हिंसा भावना के विरुद्ध होने के कारण उससे परम्परा में मतभेद या क्षोभ हो जाए तो यह कोई अचरज की बात नहीं है । पर अचरज की बात तो यह है कि जिस परम्परा में
हिंसा के आचरण का मर्यादित विधान है और जिसके अनुयायी आज भी मांसमत्स्यादि का ग्रहण ही नहीं बल्कि समर्थन भी करते हैं उस बौद्ध तथा वैदिक परम्परा के शास्त्रों में भी अमुक सूत्र तथा वाक्य मांस-मत्स्यादिपरक हैं या नहीं इस मुद्दे पर गरमा-गरम चर्चा प्राचीन काल से आज तक चली आती है ।
बौद्ध-पिटकों में जहाँ बुद्ध के निर्वाण की चर्चा है वहाँ कहा गया है कि चुन्द नामक एक व्यक्ति ने बुद्ध को भिक्षा में सूकर-मांस दिया था १६ जिसके खाने से बुद्ध को उग्र शूल पैदा हुआ और वही मृत्यु का कारण हुआ । बौद्ध-पिटकों में अनेक जगह ऐसा वर्णन आता है जिससे संदिग्ध रूप से माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु अपने निमित्त से मारे नहीं गए ऐसे पशु का मांस ग्रहण करते थे । जब बुद्ध की मौजूदगी में उन्हीं का भिक्षुसंघ मांस-मत्स्यादि ग्रहण करता था तब चुन्द के द्वारा बुद्ध को दी गई सूकर-मांस की भिक्षा के अर्थ के बारे में मतभेद या खींचातानी क्यों हुईं ? यह एक समस्या है ।
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बुद्ध की मृत्यु का कारण समझ कर कोई चुन्द को अपमानित या तिरस्कृत न करें इस उदात्त भावना से खुद बुद्ध ने ही चुन्द का बचाव किया है और संघ को कहा है कि कोई चुन्द को दूषित न मानें । बौद्ध पिटक के इस वर्णन से यह तो स्पष्ट ही है किं सूकर मांस जैसी गरिष्ठ वस्तु की भिक्षा देने के कारण बौद्ध संघ चुन्द का तिरस्कार करने पर उतारू था उसी को बुद्ध ने सावध किया है । जब बुद्ध की मौजूदगी में बौद्धभिक्षु मांस जैसी वस्तु ग्रहण करते थे और खुद बुद्ध के द्वारा भी चुन्द के उपरान्त उग्र गृहपति की दी हुई सूकर-मांस की भिक्षा लिये जाने का अंगुत्तरनिकाय पंचम निपात में साफ कथन है; तब बौद्ध परम्परा में आगे जाकर सूकर-मांस अर्थ के सूचक सूत्र के अर्थ पर बौद्ध विद्वानों का मतभेद क्यों हुआ ? यह कम कुतूहल का विषय नहीं है ।
१६. दीघ० महापरिनिव्वाणसुत १६
२०. अंगुत्तर Vol II. P. 187 मज्झिमनिकाय सु० ५५ विनयपिटक -पु० २४५ ( हिन्दी )
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जैन धर्म और दर्शन बुद्ध के निर्वाण के करीब १००० वर्ष के बाद बुद्धघोष ने पिटकों के ऊपर व्याख्याएँ लिखी हैं । उसने दीघनिकाय की अट्ठकथा में पाली शब्द 'सूकर मद्दव' के जुदे जुदे व्याख्याताओं के द्वारा किये जाने वाले तीन अर्थों का निर्देश किया है । उदान की अट्ठकथा में और नए दो अर्थों की वृद्धि देखी जाती है । इतना ही नहीं बल्कि चीनी भाषा में उपलब्ध एक ग्रन्थ में 'सूकर महव' का बिलकुल नया ही अर्थ किया हुआ मिलता है । सूकर-मांस यह अर्थ तो प्रसिद्ध ही था पर उससे जुदा होकर अनेक व्याख्याकारों ने अपनी-अपनी कल्पना से मूल 'सकर मद्दव' शब्द के नए-नए अर्थ किए हैं । इन सब-नए नए अर्थों के करनेवालों का तात्पर्य इतना ही है कि सूकर-मद्दव शब्द सकर माँस का बोधक नहीं है और चुन्द ने बुद्ध को भिक्षा में सूकर-माँस नहीं दिया था।
२१-संक्षेप में वे अर्थ इस प्रकार हैं.१–लिग्ध और मृदु सूकर माँस । २—पञ्चगोरस में से तैयार किया हुअा एक प्रकार का एक कोमल अन्न । ३–एक प्रकार का रसायन । ये तीन अर्थ महापरिनिर्वाण सूत्र की अट्ठकथा में हैं। ४-सूकर के द्वारा मर्दित बाँस का अंकुर । ५- वर्षा में ऊगनेवाला बिल्ली का टोप-अहिक्षत्र । ये दो अर्थ उदान-अटकथा में हैं। ६–शर्करा का बना हुआ सूकर के आकार का खिलौना । यह अर्थ किसी चीनी ग्रन्थ में है जिसे मैंने देखा नहीं है पर अध्यापक धर्मानन्द कौशांबीजी के द्वारा ज्ञात हुआ है। व्याधि की निवृत्ति के लिए भगवान् महावीर के वास्ते श्राविका रेवती के द्वारा दी गई भिक्षा का भगवती में शतक १५ में वर्णन है। उस भिक्षावस्तु के भी दो अर्थ पूर्व काल से चले आए हैं । जिनको टीकाकार अभयदेव ने निर्दिष्ट किया है । एक अर्थ माँस-परक है जब कि दूसरा वनस्पतिपरक है । अपने-अपने सम्प्रदाय के नायक बुद्ध और महावीर के द्वारा ली गई भिक्षा वस्तु के सूचक सूत्रों का माँसपरक तथा निर्मास-परक अर्थ दोनो परम्परा में किया गया है यह वस्तु ऐतिहासिकों के लिए विचारप्रेरक है। दोनों में फर्क यह है कि एक परम्परा में माँस के अतिरिक्त अनेक अर्थों की सृष्टि हुई है जब कि दूसरी परम्परा में माँस के अतिरिक्त मात्र वनस्पति ही अर्थ किया गया है।
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सामिष - निरामिषन् श्राहार
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बुद्धघोष आदि लेखकों ने जिन अनेक अर्थों को अपने अपने ग्रन्थों में, नोघ की है और जो एक अजीव अर्थ उस पुराने चीनी ग्रन्थ में भी मिलता है—यह सब केवल उस समय की ही कल्पनासृष्टि नहीं है पर जान पड़ता है कि बुद्धघोष आदि के पहले ही कई शताब्दियों से बौद्ध परम्परा में बुद्ध ने सूकर-माँस खाया था या नहीं, इस मुद्दे पर प्रबल मतभेद हो गया था और जुदे-जुदे व्याख्याकार अपनी-अपनी कल्पना से अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते थे । बुद्धघोष आदि ने तो उन्हीं सब पक्षों की यादी भर की है ।
१
बौद्ध परम्परा के ऊपरसूचित दोनों पक्षों का लम्बा इतिहास बौद्ध वाङ्गमय में है । हम तो यहाँ प्रस्तुतोपयोगी कुछ संकेत करना ही उचित समझते हैं । पालिपिटकों पर मदार रखनेवाला बौद्ध-पक्ष स्थविरवाद कहलाता है जब कि पालिपिटकों के ऊपर से बने संस्कृत पिटकों के ऊपर मदार बाँधनेवाला पक्ष महायान कहलाता है । महायान - परम्परा का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है लंकावतार जो ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में कभी रचा गया है। लंकावतार के आठवें 'मांस भक्षण परिवर्त' नामक प्रकरण में महामति बोधिसत्त्व ने बुद्ध के प्रति प्रश्न किया है कि आप मांसभक्षण के गुणदोष का निरूपण कीजिए । बहुत लोग बुद्धशासन पर ाक्षेप करते हैं कि बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुकों के लिए माँस-ग्रहण की अनुशा दी है. और खुद ने भी माँस भक्षण किया है। भविष्यत् में हम कैसा उपदेश करें यह आप कहिए | इस प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने उस बोधिसत्त्व को कहा है कि भला, सब प्राणियों में मैत्री - भावना रखनेवाला मैं किस प्रकार माँस खाने की अनुज्ञा दे सकता हूँ और खुद भी खा सकता हूँ ? अलबत्ता भविष्य में ऐसे मॉसलोलुप कुतर्कवादी होंगे जो मुझ पर झूठा लाञ्छन लगाकर अपनी माँसलोलुपता को तृति करेंगे और विनय-पिटक के कल्पित अर्थ करके लोगों को भ्रम में डालेंगे। मैं तो सर्वथा सब प्रकार के माँस का त्याग करने को ही कहता हूँ । इस मतलब का जो उपदेश लंकावतारकार ने बुद्ध के मुख से कराया है वह इतना अधिक युक्तिपूर्ण और मनोरंजक है कि जिसको पढ़कर कोई भी अभ्यासी सहज ही में यह जान सकता है कि महायान - परम्परा में माँस-भोजन विरुद्ध कैसा प्रबल आन्दोलन शुरू हुआ था और उसके सामने दूसरा पक्ष कितने बल से विनय-पिटकादि शास्त्रों के आधार पर माँस-ग्रहण का समर्थन करता था ।
करीब ई० सन् छठी शताब्दी में शान्तिदेव नामक बौद्ध विद्वान् हुए, जो महायान -परम्परा के ही अनुगामी थे । उन्होंने 'शिक्षा - समुच्चय' नामक अपने ग्रन्थ में माँस के लेने- न लेने की शास्त्रीय चर्चा की है। उनके सामने माँस-ग्रहणा
१ देखिए अन्त में परिशिष्ट
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१२.
का समर्थन करनेवाली स्थविरवादी परम्परा के अलावा कुछ महायानी ग्रन्थकार भी ऐसे थे जो माँस-ग्रहण का समर्थन करते थे । शान्तिदेव ने अपने समय तक के प्रायः सभी पक्ष-विपक्ष के शास्त्रों को देखकर उनका आपसी विरोध दूर करने का तथा अपना स्पष्ट अभिप्राय प्रगट करने का प्रयत्न किया है । शान्तिदेव का सुझाव तो लंकावतार सूत्रकार की तरह माँसनिषेध की ओर ही है, फिर भी लंकावतार सूत्रकार की अपेक्षा उनके सामने विपक्ष का साहित्य और विपक्ष की दलीलें बहुत अधिक थीं जिन सबको वे टाल नहीं सकते थे । इसलिए लंकावतार सूत्र के आधार पर माँसनिषेध का समर्थन करते हुए भी शान्तिदेव ने कुछ ऐसे अपवाद स्थान बतलाए हैं जिनमें भिक्षु माँस भी ले सकता है। उन्होंने कहा है कि अगर कोई ऐसा समर्थ भिक्षु हो कि जिसकी मृत्यु से समाधि-मार्ग का लोप हो जाता हो और औषध के तौर पर माँस ग्रहण करने से उसका बच जाना संभव हो तो ऐसे भिक्षु के लिये माँस भी भैषज्य के तौर पर कल्प्य है ।
यद्यपि शान्तिदेव ने बुद्ध का नाम लेकर भैषज्य के तौर पर माँसग्रहण करने की बात नहीं कही है फिर भी जान पड़ता है कि जो माँस-ग्रहण के पक्षपाती बुद्ध के द्वारा लिये गए सुकर माँस की बात आगे करके अपने पक्ष का समर्थन करते थे उन्हीं को यह जवाब दिया गया है । शान्तिदेव ने विनय-पिटक में विहित त्रिकोटिशुद्ध माँस और सहज मृत्यु से मृत प्राणी के माँससूचक अनेक सूत्रों का तात्पर्य माँस-निषेध की दृष्टि से बतलाया है । शान्तिदेव का प्रयत्न माँसनिषेधगामी होने पर भी अपवादसहिष्णु है ।
जैन धर्म और दर्शन
1
बुद्धघोष, लंकावतारकार और शान्तिदेव के बीच हुए हैं। और वे स्थविरवादी भी हैं । इसलिए उन्होंने पालि पिटकों की तथा विनय की प्राचीन परम्परा को सुरक्षित रखने का भरसक प्रयत्न किया है। इस संक्षिप्त विवरण से पाठक समझ सकेंगे कि माँस के ग्रहण और अग्रहण के विषय में बौद्ध परम्परा में कैसा ऊहापोह शरू हुआ था ।
वैदिक शास्त्रों में हिंसा - हिंसा दृष्टि से अर्थभेद का इतिहास
सुविदित है कि वैदिक परम्परा माँस-मत्स्यादि को अखाद्य मानने में उतनी सख्त नहीं है जितनी कि बौद्ध और जैन परम्परा । वैदिक यज्ञ-यागों में पशुवध को धर्म्यं माने जाने का विधान आज भी शास्त्रों में है ही । इतना ही नहीं बल्कि भारत-व्यापी वैदिक परम्परा के अनुयायी कहलाने वाले अनेक जाति-दल ऐसे हैं जो ब्राह्मण होते हुए भी माँस-मत्स्यादि को खाद्य रूप से व्यवहुत स्थापित भी करते हैं ।
अन्न की तरह
- करते हैं और धार्मिक क्रियात्रों में तो उसे धर्म्य रूप से
-
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सामिष-निरामिष-आहार वैदिक परम्परा की ऐसी स्थिति होने पर भी हम देखते हैं कि उसकी कट्टर अनुयायी अनेक शाखाओं और उपशाखाओं ने हिंसासूचक शास्त्रीय वाक्यों का अहिंसापरक अर्थ किया है और धार्मिक अनुष्ठानों में से तथा सामान्य जीवन-व्यवहार में से माँस-मत्स्यादि को अखाद्य करार करके बहिष्कृत किया है । किसी अति विस्तृत परम्परा के करोड़ों अनुयायियों में से कोई माँस को अखाद्य और अग्राह्य समझेयह स्वाभाविक है, पर अचरज तो तब होता है कि जब वे उन्हीं धर्म शास्त्र के वाक्यों का अहिंसापरक अर्थ करते हैं जिनका कि हिंसापरक अर्थ ठसी परम्परा के प्रामाणिक और पुराने दल करते हैं । सनातन परम्परा के प्राचीन सभी मीमांसक व्याख्यानकार यज्ञ-यागादि में गो, अज, आदि के वध को धर्म्य स्थापित करते हैं जब कि वैष्णव, आर्य समाज, स्वामी नारायण श्रादि जैसी अनेक वैदिक परम्पराएँ उन वाक्यों का या तो बिलकुल जुदा अहिंसापरक अर्थ करती हैं या ऐसा संभव न हो वहाँ ऐसे वाक्यों को प्रक्षिप्त कह कर प्रतिष्ठित शास्त्रों में स्थान देना नहीं चाहती। मीमांसक जैसे पुरानी वैदिक परम्परा के अनुगामी और प्रामाणिक व्याख्याकार शब्दों का यथावत् अर्थ करके हिंसा-प्रथा से बचने के लिए इतना ही कह कर छुट्टी पा लेते हैं कि कलियुग में वैसे यज्ञ-यागादि विधेय नहीं तब वैष्णव,
आर्य-समाज' श्रादि वैदिक शाखाएँ उन शब्दों का अर्थ ही अहिंसापरक करती हैं या उन्हें प्रक्षिप्त मानती हैं। सारांश यह है कि अतिविस्तृत और अनेकविध आचार-विचार वाली वैदिक परम्परा भी अनेक स्थलों में शास्त्रीय वाक्यों का हिंसा. परक अर्थ करना या अहिंसापरक इस मुद्दे पर पर्याप्त मतभेद रखती है।
शतपथ, तैत्तिरीय जैसे पुराने और प्रतिष्ठित ब्राह्मण ग्रन्थों में जहाँ सोमयाग का विस्तृत वर्णन है वहाँ, अज, गो, अश्व आदि पशुओं का संज्ञपन--वध करके उनके माँसादि से यजन करने का शास्त्रीय विधान है । इसी तरह पारस्करीय गृह्य
१ एक प्रश्न के उत्तर में स्वामी दयानन्द ने जो सत्यार्थ प्रकाश में कहा है और जो 'दयानन्द सिद्धान्त भास्कर' पृ. ११३ में उद्धत है उसे हम नीचे देते हैं जिससे यह भलीभाँति जाना जा सकता है कि स्वामीजी ने शब्दों को कैसा तोड़मरोड़ कर अहिंसा दृष्टि से नया अर्थ किया है
"राजा न्याय-धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादिका दान देने वाले यजमान और अग्नि में, घी आदि का होम करना अश्वमेध; अन्न, इन्द्रियाँ, किरण (और) पृथिवी आदि को पवित्र रखना गोमेध, जब मनुष्य मर जाए तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है।"- सत्यार्थ प्रकाश स० ११
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जैन धर्म और दर्शन
सूत्र आदि में देखते हैं कि जहाँ अष्टका श्राद्ध, ૨૧ शूलगव कर्म और अन्त्येष्टि संस्कार का २४ वर्णन है वहाँ गाय, बकरा जैसे पशुओं के माँस चर्बी आदि द्रव्य से क्रिया सम्पन्न करने का निःसंदेह विधान है । कहना न होगा कि ऐसे माँसादि प्रधान यज्ञ और संस्कार उस समय की याद दिलाते हैं जब कि क्षत्रिय और वैश्य के ही नहीं बल्कि ब्राह्मण तक के जीवन व्यवहार में माँस का उपयोग साधारण वस्तु थी पर आगे जाकर स्थिति बदल जाती है ।
वैदिक परम्परा में ही एक ऐसा प्रबल पक्ष पैदा हुआ जिसने यज्ञ तथा श्राद्ध आदि कर्मों में धर्म्य रूप से अनिवार्य मानी जाने वाली हिंसा का जोरों से प्रतिवाद शुरू किया । श्रमण जैसी वैदिक परंपराएँ तो हिंसक याग-संस्कार यादि का प्रबल विरोध करती ही थीं पर जब घर में ही आग लगी तब वैदिक परम्परा की पुरानी शास्त्रीय मान्यताओं की जड़ हिल गई और वैदिक परम्परा में दो पक्ष पड़ गए । एक पक्ष ने धर्म्य माने जाने वाले हिंसक याग-संस्कार आदि का पुराने शास्त्रीय वाक्यों के आधार पर ही समर्थन जारी रखा जब कि दूसरे पक्ष ने उन्हीं वाक्यों का या तो अर्थ बदल दिया या अर्थ बिना बदले ही कह दिया कि ऐसे हिंसा प्रधान याग तथा संस्कार कलियुग में वर्ज्य हैं। इन दोनों पक्षों की दलीलबाजी एवं विचारसरणी की बोधप्रद तथा मनोरंजक कुश्ती हमें महाभारत में जगहजगह देखने को मिलती है ।
६
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[२५ और अश्वमेधीय पर्व इसके लिए खास देखने योग्य हैं । अनुशासन महाभारत के अलावा मत्स्य २७ और भागवत २८ आदि पुराण भी हिंसक याग विरोधी वैदिक पक्ष की विजय की साक्षी देते हैं। कलियुग में वर्ज्य वस्तुओं का वर्णन करने वाले अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें से आदित्यपुराण, बृहन्नारदीय
२६
२२- काण्ड ३, प्र० ८-६;
२३ - काण्ड ६ प्रपाठक ३
२४- काण्ड ३, ४-८
२५- अनुशासन पर्व- - ११७ श्लो० २३
२६ - अश्वमेधीय पर्व - ० ६१ से ६५; नकुलाख्यान ०६४ अगस्त्यकृतबीजमय यज्ञ
२७ - मत्स्य पुराण श्लो० १२१
२-- भागवत पुराण- स्कंध ७, ० १५, श्लो० ७-११
२६--- आदित्य पुराण जैसा कि हेमाद्रि ने उद्धृत किया है
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सामिष-निरामिष-श्राहार स्मृति,३° वीर मित्रोदय' तथा ब्रह्मपुराण २ में अन्यान्य वस्तुओं के साथ यज्ञीय गोवध, पशुवध तथा ब्राह्मण के हाथ से किया जाने वाला पशु मारण भी वयं बतलाया गया है। मनुस्मृति ३ तथा महाभारत ४ में वह भी कहा गया है कि घृतमय या पिष्टमय अज आदि पशु से यज्ञ संपन्न करे पर वृथा पशुहिंसा न करे। ___ हिंसक यागसूचक वाक्यों का पुराना अर्थ ज्यों का त्यों मानकर उनका समः र्थन करने वाली सनातनमानस मीमांसक परंपरा हो या उन वाक्यों का अर्थ बदलने वाली वैष्णव, आर्यसमाज आदि नई परम्परा हो पर वे दोनों परम्पराएँ बहुधा अपने जीवन-व्यवहार में माँस-मत्स्य आदि से परहेज करती ही हैं। दोनों का अन्तर मुख्यतया पुराने शास्त्रीय वाक्यों के अर्थ करने ही में है। सनानत-मानस
और नवमानस ऐसी दो परम्पराओं की परस्पर विरोधी चर्चा का आपस में एक दूसरे पर भी असर देखा जाता है। उदाहरणार्थ हम वैष्णव परम्परा को लें । यद्यपि यह परम्परा मुख्यतया अहिंसक यागका ही पक्ष करती रही है फिर भी उसकी विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजीय शाखा और द्वैतवादी माध्वशाखा में बड़ा अन्तर है। माध्वशाखा अज का पिष्टमय अज ऐसा अर्थ करके ही धर्म्य आचारों का निर्वाह करती है जब कि रामानुज शाखा एकान्त रूप से वैसा मानने वाली नहीं है। रामानुज शाखा में तेंगलै और वडगलै जैसे दो भेद हैं। द्रविडियन तेंगलै शब्द का अर्थ है दाक्षिणात्य विद्या और वडगलै शब्द का अर्थ है संस्कृत विद्या । तेंगलै शाखा वाले रामानुजी किसी भी प्रकार के पशुवध से सम्मत नहीं। इसलिए वे स्वभाव से ही गो, अज आदि का अर्थ बदल देंगे या ऐसे यज्ञों को कलियुग वयं कोटि में डाल देंगे जब कि वडगलै शाखा वाले रामानुजी वैष्णव होते हुए भी हिंसक याग से सम्मत हैं। इस तरह हमने संक्षेप में देखा कि बौद्ध और वैदिक दोनों परम्पराओं में अहिंसा सिद्धान्त के आधार पर माँस जैसी वस्तुओं की खाद्याखाद्यता का इतिहास अनेक क्रिया-प्रतिक्रियाओं से रंगा हुआ है।
'महाप्रस्थानगमनं गोसंज्ञप्तिश्च गोसवे ।
सौत्रामण्यामपि सुराग्रहणस्य च संग्रहः ॥' ३०–बृहन्नारदीय स्मृति अ० २२, श्लो० १२-१६ ३१–वीरमित्रोदय संस्कार प्रकरण पृ०६६ ३२-स्मृतिचन्द्रिका संस्कार-काण्ड पृ० २८ ३३-मनुस्मृति-५,३७ ३४-अनुशासन पर्व १७७ श्लो० ५४
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सामिष-निरामिष-आहार का परिशिष्ट
हीनयान और महायान स्थविरवाद और महायान-ये दोनों एक ही तथागत बुद्ध को और उनके उपदेशों को मानने वाले हैं फिर भी दोनों के बीच इतना अधिक और तीव्र विरोध कभी हुआ है जैसा दो सपत्नियों में होता है। ऐसी ही मानसिक कटुता, एक ही भगवान् महावीर को और उनके उपदेशों को मानने वाले श्वेताम्बर, दिगम्बर श्रादि फिरकों के बीच भी इतिहास में पाई जाती है। यों तो भारत धर्मभूमि कहा जाता है और वस्तुतः है भी तथापि वह जैसा धर्मभूमि रहा है वैसा धर्मयुद्धभूमि भी रहा है। हम इतिहास में धर्मकलह दो प्रकार का पाते हैं । एक तो वह है जो भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के बीच परस्पर रहा है, दूसरा वह "है जो एक ही सम्प्रदाय के अवान्तर-भीतरी फिरकों के बीच परस्पर रहा है । पहले का उदाहरण है वैदिक और अवैदिक-श्रमणों का पारस्परिक संघर्ष जो दोनों के धर्म और दर्शन-शास्त्र में निर्दिष्ट है | दूसरे का उदाहरण है एक ही औपनिषद परम्परा के अवान्तर भेद शाङ्कर, रामानुजीय, माध्व, वल्लभीय आदि फिरकों के 'बीच की उग्र मानसिक कटुता । इसी तरह बौद्ध और जैन जैसी दोनों श्रमस परम्पराओं के बीच जो मानसिक कटुता परस्पर उग्र हुई उसने अन्त में एक ही 'सम्प्रदाय के अवान्तर फिरकों में भी अपना पाँव फैलाया । इसी का फल स्थविरवाद और महायान के बीच का तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर के बीच का उग्र विरोध है।
बुद्ध-निर्वाण के सौ वर्ष बाद वैशाली में जो संगीति हुई उसमें स्थविरवाद और महासंधिक ऐसे दो पक्ष तो पड़ ही गए थे। अागे तीसरी संगीति के समय अशोक के द्वारा जब दोनों पक्षों के बीच समाधान न हुआ तो विरोध की खाई चौड़ी होने लगी। स्थविरवादियों ने महासंघिकों को 'अधर्मवादी' तथा 'पापभिन्' कह कर बहिष्कृत किया । महासंघिकों ने भी इसका बदला चुकाना शुरू किया । क्रमशः महासंधिकों में से ही महायान का विकास हुआ ! महायान के प्रबल पुरस्कर्ता नागार्जुन ने अपने 'दशभूमि विभाषा शास्त्र में लिखा है कि जो श्रावकमान और प्रत्येकयान में अर्थात् स्थविरवाद में प्रवेश करता है. वह सारे लाभ को नष्ट कर देता है फिर कभी बोधिसत्त्व हो नहीं पाता। नागार्जुन का कहना है कि
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________________ सामिष-निरामिष-श्राहार का परिशिष्ट 87 नरक में जाना भयप्रद नहीं है पर हीनयान में प्रवेश करना अवश्य भयप्रद है / नागार्जुन के अनुगामी स्थिरमति (ई. सन् 200-300 के बीच) ने अपने 'महायानावतारक शास्त्र' में लिखा है कि जो महायान की निन्दा करता है वह पापभागी व नरकगामी होता है / ___बसुबन्धु ने (चौथी शताब्दी) अपने 'बोधि-चित्तोत्पादन-शास्त्र' में लिखा है कि जो महायान के तत्त्व में दोष देखता है वह चार में से एक महान् अपराधपाप करता है और जो महायान के ऊपर श्रद्धा रखता है वह चारों विघ्नों को पार करता है। ऊपर जो बौद्ध' हीनयान-महायान जैसे फिरकों के बीच हुई मानसिककटुता का उल्लेख हमने किया है वह जैन फिरकों के बीच हुई वैसी ही मानसिक कटुता के साथ तुलनीय है / जब समय, स्थान और वातावरण की समानता का ऐतिहासक दृष्टि से विचार करते हैं तब जान पड़ता है कि धर्म विषयक मानसिक कटुता एक चेपी रोग की तरह फैली हुई थी। १--चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र में हुई वाचना के समय जैन संघ में पूर्ण ऐकमत्य का अभाव, बौद्ध वैशाली संगीति की याद दिलाता है / २-ई. सन् दूसरी शताब्दी के अंत में श्वेताम्बर-दिगम्बर फिरकों का पारस्परिक अन्तर इतना हो गया कि एक ने दूसरे को 'निह्नव' तो दूसरे ने पहले को 'जैनाभास' तक कह डाला | यह घटना हमें स्थविरवादी और महासंघिकों के बीच होने वाली परस्पर भर्त्सना की याद दिलाती है जिसमें एक ने दूसरे को अधर्मवादी तथा दूसरे ने पहले को हीनयानी कहा / ३-हमने पहले (पृ० 61 में) जिस श्रुतावर्णवाद-दोष के लाञ्छन का निर्देश किया है वह हमें ऊपर सूचित स्थिरमति और वसुबन्धु आदि के द्वारा हीनयानियों के ऊपर किये गए तीव्र प्रहारों की याद दिलाता है। विशेष विवरण के लिए देखिए A Historical study of the terms Hinayana and Mahayana Buddhism: By Prof. Ryukan Kimura, Published by Calcutta University