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________________ सामिष-निरामिष-आहार वैदिक परम्परा की ऐसी स्थिति होने पर भी हम देखते हैं कि उसकी कट्टर अनुयायी अनेक शाखाओं और उपशाखाओं ने हिंसासूचक शास्त्रीय वाक्यों का अहिंसापरक अर्थ किया है और धार्मिक अनुष्ठानों में से तथा सामान्य जीवन-व्यवहार में से माँस-मत्स्यादि को अखाद्य करार करके बहिष्कृत किया है । किसी अति विस्तृत परम्परा के करोड़ों अनुयायियों में से कोई माँस को अखाद्य और अग्राह्य समझेयह स्वाभाविक है, पर अचरज तो तब होता है कि जब वे उन्हीं धर्म शास्त्र के वाक्यों का अहिंसापरक अर्थ करते हैं जिनका कि हिंसापरक अर्थ ठसी परम्परा के प्रामाणिक और पुराने दल करते हैं । सनातन परम्परा के प्राचीन सभी मीमांसक व्याख्यानकार यज्ञ-यागादि में गो, अज, आदि के वध को धर्म्य स्थापित करते हैं जब कि वैष्णव, आर्य समाज, स्वामी नारायण श्रादि जैसी अनेक वैदिक परम्पराएँ उन वाक्यों का या तो बिलकुल जुदा अहिंसापरक अर्थ करती हैं या ऐसा संभव न हो वहाँ ऐसे वाक्यों को प्रक्षिप्त कह कर प्रतिष्ठित शास्त्रों में स्थान देना नहीं चाहती। मीमांसक जैसे पुरानी वैदिक परम्परा के अनुगामी और प्रामाणिक व्याख्याकार शब्दों का यथावत् अर्थ करके हिंसा-प्रथा से बचने के लिए इतना ही कह कर छुट्टी पा लेते हैं कि कलियुग में वैसे यज्ञ-यागादि विधेय नहीं तब वैष्णव, आर्य-समाज' श्रादि वैदिक शाखाएँ उन शब्दों का अर्थ ही अहिंसापरक करती हैं या उन्हें प्रक्षिप्त मानती हैं। सारांश यह है कि अतिविस्तृत और अनेकविध आचार-विचार वाली वैदिक परम्परा भी अनेक स्थलों में शास्त्रीय वाक्यों का हिंसा. परक अर्थ करना या अहिंसापरक इस मुद्दे पर पर्याप्त मतभेद रखती है। शतपथ, तैत्तिरीय जैसे पुराने और प्रतिष्ठित ब्राह्मण ग्रन्थों में जहाँ सोमयाग का विस्तृत वर्णन है वहाँ, अज, गो, अश्व आदि पशुओं का संज्ञपन--वध करके उनके माँसादि से यजन करने का शास्त्रीय विधान है । इसी तरह पारस्करीय गृह्य १ एक प्रश्न के उत्तर में स्वामी दयानन्द ने जो सत्यार्थ प्रकाश में कहा है और जो 'दयानन्द सिद्धान्त भास्कर' पृ. ११३ में उद्धत है उसे हम नीचे देते हैं जिससे यह भलीभाँति जाना जा सकता है कि स्वामीजी ने शब्दों को कैसा तोड़मरोड़ कर अहिंसा दृष्टि से नया अर्थ किया है "राजा न्याय-धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादिका दान देने वाले यजमान और अग्नि में, घी आदि का होम करना अश्वमेध; अन्न, इन्द्रियाँ, किरण (और) पृथिवी आदि को पवित्र रखना गोमेध, जब मनुष्य मर जाए तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है।"- सत्यार्थ प्रकाश स० ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229049
Book TitleSamish Niramish Ahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Food
File Size163 KB
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