Book Title: Samish Niramish Ahar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 8
________________ सामिष-निरामिष-आहार में धीरे-धीरे पर सतत चालू थी । इस प्रक्रिया का मुख्य आधार अहिंसा, संयम और तप हो पहले से रहा है । अनेक छोटी-बड़ी जातियों और छिटपुट व्यक्तियों उसी आधार से आकृष्ट होकर निर्ग्रन्थ-संध में सम्मिलित होती रही हैं । जब कोई नया दल या नई व्यक्ति संधमें प्रवेश करते हैं तब उसके लिए वह संक्रम-काल होता है । संघ में स्थिर हुए दल तथा व्यक्ति और संघ में नया प्रवेश करने वाले दल तथा व्यक्ति के बीच अमुक समय तक आहार-विहारादि में थोड़ा-बहुत अंतर रहना अनिवार्य है। माँस-मत्स्य आदि का व्यवहार करने वाली जातियाँ या व्यक्तियाँ यकायक निर्ग्रन्थ-संघ में शामिल होते ही अपना सारा पुराना संस्कार बदल दें यह सर्वत्र संभव नहीं । प्रचारक निर्ग्रन्थ तपस्वी भी संघ में भर्ती होने वाली नई जातियों तथा व्यक्तियों का संस्कार उनकी रुचि और शक्ति के अनुसार ही बदलना ठीक समझते थे जैसे आजकल के प्रचारक भी अपने-अपने उद्देश्य के लिए वैसा ही करते हैं । एक बार निर्ग्रन्थ संघ में दाखिल हुए और उसके सिद्धान्तानुसार जीवन-व्यवहार बना लेने वालों की जो संतति होती है उसको तो निर्ग्रन्थ संघानुकूल संस्कार जन्मसिद्ध होता है पर संघ में नए भर्ती होने वालों के निग्रन्थ संघानुकूल संस्कार जन्मसिद्ध न होकर प्रयत्नसाध्य होते हैं । जन्मसिद्ध और प्रयत्नसाध्य संस्कारों के बीच अंतर यह होता है कि एक तो बिना प्रयत्न और बिना विशेष तालीम के ही जन्म से चला आता है जब कि दूसरा बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से धीरे-धीरे आता है । दूसरे संस्कार की अवस्था ही संक्रम-काल है । कोई यह न समझे कि निग्रन्थ-संघ के सभी अनुयायी अनादि-कालसे जन्मसिद्ध संस्कार लेकर ही चलते आ रहे हैं। निर्ग्रन्थ-संघ का इतिहास कहता है कि इस संघ ने अनेक जातियों और व्यक्तियों को निर्ग्रन्थ सङ्घ की दीक्षा दी । यही कारण है कि मध्य काल की तरह प्राचीन काल में हम एक ही कुटुम्ब में निग्रन्थ संघ के अनुयायी और इतर बौद्ध आदि श्रमण तथा ब्राह्मण-संप्रदाय के अनुयायी पाते हैं । विशेष क्या हम इति. हास से यह भी जानते हैं कि पति निग्रन्थ संव का अंग है तो पत्नी इतर धर्म की अनुयायिनी है ६ | जैसा आज का निग्रन्थ-संघ मात्र जन्मसिद्ध देखा जाता है वैसा मध्यकाल ओर प्राचीन काल में न था। उस समय प्रचारक निर्घन्ध अपने संघ की वृद्धि और विस्तार में लगे थे इससे उस समय यह संभव था कि एक ही कुटुम्ब में कोई निरामिषभोजी निर्ग्रन्थ उपासक हो तो सामिषभोजी अन्य १६. उपासकदशांग श्र०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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