Book Title: Samish Niramish Ahar
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 13
________________ ७२ जैन धर्म और दर्शन विरोध शुरू किया जो क्रमशः एक मर्तिविरोधी फिरके में परिणत हो गया । नया आन्दोलन या विचार कोई भी हो पर सम्प्रदाय में वह तभी स्थान पाता और सफल होता है जब उसको शास्त्रों का आधार हो। ऐसा आधार जब तक न हो तब तक नया फिरका पनप नहीं सकता । तिस पर भी यदि पुराने शास्त्रों में नए आन्दोलन के खिलाफ प्रमाण भरे पड़े हों तब तो नए आन्दोलन को आगे कूच करने में बड़ी रुकावटों का सामना करना पड़ता है। पुराने निर्ग्रन्थ अागमों में तथा उत्तरकालीन अन्य साहित्य में मूर्तिपूजा और प्रतीकोपासना के सूचक अनेक उल्लेख मौजूद हैं—ऐसी स्थिति में विरुद्ध उल्लेखवाले श्रागमों को मानकर मूर्तिपूजा के विरोध का समर्थन कैसे किया जा सकता था ? मूर्तिपूजा का विरोध परिस्थिति में आ गया था, आन्दोलन चालू था, पुराने विरुद्ध उल्लेख बाधक हो रहे थे-इस कठिनाई को हल करने के लिए नए मूर्तिपूजा विरोधी फिरके ने उसी ऐतिहासिक मार्ग का अवलम्बन लिया जिसका कि सामिष-निरामिष भोजन के विरोध का परिहार करने में पहले भी निग्रन्थ मुनि ले चुके थे। अर्थात् मूर्तिपूजा के विरोधियों ने चैत्य, प्रतिमा, जिन-गृह आदि मूर्तिसूचक पाठों का अर्थ हो बदलना शुरू कर दिया। इस तरह हम निग्रन्थ-परम्परा के श्वेताम्बर फिरके में ही देखते हैं कि एक फिरका जिन पाठों का मूर्तिपरक अर्थ करता है, दूसरा फिरका उन्हीं पाठों का अन्यान्य अर्थ करके मूर्तिपूजा के विरोधवाले अपने पक्ष का समर्थन करता है। पाठक सरलता से समझ सके होंगे कि पुराने पाठरूप एक ही डण्ठल में-वृन्त में परिस्थिति मेद से कैसे अनेक फल लगते है। आगमों की प्राचीनता __ सामिष आहार सूचक पाठों का वनस्पतिपरक अर्थ करनेवालों का आशय तो बुरा न था। हाँ, उत्सर्ग-अपयाद के स्वरूप का ज्ञान तथा ऐतिहासिकता को वफादारी उनमें अवश्य कम थी। असली अर्थ को चिपके रहने वालों का मानस सनातन और रूढिगामी अवश्य था पर साथ ही उसमें उत्सर्ग:अपवाद के स्वरूप का विस्तृत ज्ञान तथा ऐतिहासिकता की वफादरी दोनों पर्याप्त थे । इस चर्चा पर से यह सरलता से ही जाना जा सकता है कि श्रागमों का कलेवर कितना पुराना है ? अगर आगम, भगवान् महावीर से अनेक शताब्दियों के बाद किसी एक फिरके के द्वारा नए रचे गए होते तो उनमें ऐसे सामिष आहार ग्रहण सूचक सूत्र आने का कोई सबब ही न था । क्योंकि उस जमाने के पहले ही से सारी निम्रन्थ-परम्परा निरपवादरूप से निरामिषभोजी बन चुकी थी और माँस मत्स्यादि का त्याग कुलधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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