Book Title: Samipya 2000 Vol 17 Ank 03 04
Author(s): Bhartiben Shelat, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 44
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है (सौम्य अथवा सामान्य मुख, नरसिंहमुख, वराहमुख और कपिल अथवा स्त्रीमुख) किन्तु इनको भुजाएँ क्रमशः ८, १२, १६ और २० बतायी गयी हैं, और इसीलिए उनके आयुधों की संख्या भी तदनुसार ८, १२, १६ और २० । इन चार स्वरूपों में दो का जान लेना आवश्यक है वैकुण्ठ और विश्वरूप का विभिन्न पुराणों की एक कथा के अनुसार एक बार एक शरीर में तीन राक्षस थे-सिंह, वराह और कपिल । उन्होंने तपस्या करके ब्रह्मा से यह वर प्राप्त कर लिया कि उन्हें वही मार सके जिसके शीश पर इन तीनों के मुख हों । वर प्राप्त कर लेने के बाद उन्होंने इतना उत्पात मचाया कि विष्णु को शुभ्र ऋषि की पत्नी विकुण्ठा के गर्भ से ऐसा अवतार लेना पड़ा जिसमें उनके शीश पर उन राक्षसों के शीश भी थे। विकुण्ठा के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण वैकुण्ठ कहकर उन विष्णुने तब उन राक्षसों का वध किया। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ पायी जा चुकी हैं। जिनमें मुख्य मुख विष्णु का पुरुषमुख है और उनके कंधों से निकले हुए सिंहमुख तथा वराहमुख है। चौथा कपिल या स्त्रीमुख पीछे होने के कारण छिपा रहता है । कतिपय चारो और से तराशी गयी मूर्तियों में पीछे प्रायः अश्वमुख बना पाया गया है । विष्णु का विश्वरूप उनके सर्वव्यापी विराट स्वरूप का दिग्दर्शन कराता है। विष्णुने अपने इस विस्मयकारी रूप को समय-समय पर राजा बलि, परशुराम, कौशल्या, यशोदा, अर्जुन आदिको दिखाया था । जन्म लेते ही राम चतुर्भुजी बनकर कौशल्या के समक्ष अपने विराट रूप में प्रकट हो गए। किन्तु कौशल्या ने जब शिशु लीला करने को कहा तब राम शिशु बनकर रोने लगे थे। इसी प्रकार मिट्टी खाने की शिकायत पर जब यशोदा ने कृष्ण को मुंह खोलने को कहा तो उसमें सम्पूर्ण ब्रह्मांड दिखायी दिया। कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन को मोह उत्पन्न हुआ तब कृष्ण ने उन्हें अपना विराट स्वरूप दिखाया था । इस स्वरूप का विस्तृत वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। इसमें विष्णु के सैकड़ों-हजारो नानाप्रकार के नाना वर्णों के नाना आकृतियों वाले अलौकिक रूप समाहित है । विश्वरूप विष्णु के इस स्वरूप में द्वादश आदित्य, आठ वसु एकादश रुद्र दोनों अश्विनीकुमार, उन्चास महद्गण (अध्याय ११, श्लोक ६), सचराचर सम्पूर्ण जगत (११/७), हजार सूर्यों का प्रकाश (दिविसूर्यसहस्रस्य, ११ / १२) आदि सम्मिलित हैं । विष्णु धर्मोत्तरपुराण (३/८३ / २-२४) में भी विश्वरूप विष्णु की प्रतिमा में अन्य देवों तथा अनेक प्राणियों के मुखो के अंकन का निर्देश है । वैकुण्ठ और विश्वरूप प्रतिमाओं में प्रायः मुख्य अन्तर यह होता है कि जहाँ वैकुण्ठ मूर्ति में केवल विष्णु के चार मुख (सामने से द्रष्टव्य केवल तीन) होते हैं और उनके साथ किसी अन्य देव की मूर्ति नहीं होती है, वही विश्वरूप प्रतिमा में विष्णु के चार मुखों के अतिरिक्त अन्य मुख भी होते है तथा उनके प्रभामण्डल में अथवा पृष्ठशिला पर उनके द्वादश अवतार, द्वादश आदित्य, आठ वसु, एकदश रुद्र तथा अन्य देवों की आकृतियाँ भी बनायी जाती हैं। यद्यपि साहित्य में उन्हें विंशतिभुज (२० भुजाओं वाले) बताया गया है, किन्तु मूर्तिकला में प्रायः उन्हें अष्टभुज ही बनाया गया है । विश्वरूप विष्णु की प्राचीनतम गुप्तकालीन (५ वीं शती ई.) दो खण्डित मूर्तियाँ मथुरा - शिल्प की मिली हैं जिनमें एक-एक क्रमशः मथुरा - संग्रहलय तथा राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली में हैं। गढ़वा से प्राप्त इसी युग की एक प्रतिमा लखनऊ के राज्य-संग्रहालय (सं.सं. बी. २२३ सी) मैं हे। गुप्तोत्तरकाल में देश के अनेक भागों में विश्वरूप विष्णु की प्रतिमाएँ आँकी गयीं। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय और दर्शनीय कन्नोज की प्रतिहार कालीन प्रतिमाएँ है । इन में पहली बार विष्णु के मुख तीन के स्थान पर पाँच बनाए गए थे। मत्स्य एवं कूर्म के मुख और जोड़े गए थे। इनके अतिरिक्त प्रभामण्डल में अन्य अवतार, द्वादश आदित्य, आठ वसु, एकादश रुद्र, शिव, नेपाल की एक मनोज्ञ विश्वरूप विष्णु प्रतिमा ] [४१ For Private and Personal Use Only

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