Book Title: Samaysara kalash Padyanuwada
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 8
________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - परपरिणति को छोड़ती अर तोड़ती सब भेदभ्रम । यह अखण्ड प्रचण्ड प्रगटित हुई पावन ज्योति जब ।। अज्ञानमय इस प्रवृत्ति को है कहाँ अवकाश तब । अर किसतरह हो कर्मबंधन जगी जगमग ज्योति जब ।।४७।। (हरिगीत) निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को। जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन्न-भिन्न ही हैं जानते ।। जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह । अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है।।४३।। अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में। बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में ।। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है।।४४।। - - - - - - - - ------------------- - (सवैया इकतीसा) इसप्रकार जान भिन्नता विभावभाव की, कर्तृत्व का अहं विलायमान हो रहा। निज विज्ञानघनभाव गजारूढ़ हो, निज भगवान शोभायमान हो रहा ।। ___ (२८) ------- - - - - - - - - जगत का साक्षी पुरुषपुराण यह, अपने स्वभाव में विकासमान हो रहा। अहो सद्ज्ञानवंत दृष्टिवंत यह पुमान, जग-मग ज्योतिमय प्रकाशमान हो रहा ।।४८।। तत्स्वरूप भाव में ही व्याप्य-व्यापक बने, बने न कदापि वह अतत्स्वरूप भाव में ।। कर्ता-कर्म भाव का बनना असंभव है, व्याप्य-व्यापकभाव संबंध के अभाव में। इस भांति प्रबल विवेक दिनकर से ही, भेद अंधकार लीन निज ज्ञानभाव में। - - - - - - - - - - जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटन हो चला ।। अब जबतलक हों भिन्न जीव-अजीव उसके पूर्व ही। यह ज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा ।।४५।। कर्ताकर्माधिकार (हरिगीत) मैं एक कर्ता आत्मा क्रोधादि मेरे कर्म सब । है यही कर्ताकर्म की यह प्रवृत्ति अज्ञानमय ।। शमन करती इसे प्रगटी सर्व विश्व विकाशनी। अतिधीर परमोदात्त पावन ज्ञानज्योति प्रकाशनी ।।४६ ।। - - - - - - - - - - - - - - - - - L --------___(२७) -- - - - - -___(२९)__ - -

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