Book Title: Samaysara kalash Padyanuwada
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 28
________________ F - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - । एक वस्तु हो नहीं कभी भी अन्य वस्तु की। वस्तु वस्तु की ही है - ऐसा निश्चित जानो ।। ऐसा है तो अन्य वस्तु यदि बाहर लोटे। तो फिर वह क्या कर सकती है अन्य वस्तु का ।।२१३।। स्वयं परिणमित एक वस्तु यदि परवस्तु का। कुछ करती है - ऐसा जो माना जाता है। वह केवल व्यवहारकथन है निश्चय से तो। एक दूसरे का कुछ करना शक्य नहीं है ।।२१४।। तबतक राग-द्वेष होते हैं जबतक भाई! ज्ञान-ज्ञेय का भेद ज्ञान में उदित नहीं हो।। ज्ञान-ज्ञेय का भेद समझकर राग-द्वेष को, मेट पूर्णत: पूर्ण ज्ञानमय तुम हो जावो ।।२१७।। यही ज्ञान अज्ञानभाव से राग-द्वेषमय।। हो जाता पर तत्त्वदृष्टि से वस्तु नहीं ये ।। तत्त्वदृष्टि के बल से क्षयकर इन भावों को। होजाती है अचल सहज यह ज्योति प्रकाशित ।।२१८।। (१०८) -------- (१०६) --- -- __ --- -- एक द्रव्य में अन्य द्रव्य रहता हो - ऐसा। भासित कभी नहीं होता है ज्ञानिजनों को।। शुद्धभाव का उदय ज्ञेय का ज्ञान, न जाने । फिर भी क्यों अज्ञानीजन आकुल होते हैं।।२१५ ।। शुद्धद्रव्य का निजरसरूप परिणमन होता। वह पररूप या पर उसरूप नहीं हो सकते ।। अरे चाँदनी की ज्यों भूमि नहीं हो सकती। त्यों ही कभी नहीं हो सकते ज्ञेय ज्ञान के ।।२१६ ।। तत्त्वदृष्टि से राग-द्वेष भावों का भाई। कर्ता-धर्ता कोई अन्य नहीं हो सकता।। क्योंकि है अत्यन्त प्रगट यह बात जगत में। द्रव्यों का उत्पाद स्वयं से ही होता है।।२१९।। राग-द्वेष पैदा होते हैं इस आतम में। उसमें परद्रव्यों का कोई दोष नहीं है ।। यह अज्ञानी अपराधी है इनका कर्ता । यह अबोध हो नष्ट कि मैं तो स्वयं ज्ञान हूँ।।२२०।। - - - - - - - - - ______(१०७------- ----- (१०९)_____

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