Book Title: Samaysara kalash Padyanuwada
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ F--- --- -- --- -- --- --- -- --- T - - - - -- -- --- - - - -- -- -- - - --- r - - बंध न हो नव कर्म का पूर्व कर्म का नाश। नृत्य करें अष्टांग में सम्यग्ज्ञान प्रकाश ।।१६२।। - - - - - - - - - - निज आतमा सत् और सत् का नाश हो सकता नहीं। है सदा रक्षित सत् अरक्षाभाव हो सकता नहीं।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वें। वे तो सतत् निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।।१५७।। कोई किसी का कुछ करे यह बात संभव है नहीं। सब हैं सुरक्षित स्वयं में अगुप्ति का भय है नहीं।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे। वे तो सतत निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।।१५८।। मृत्यु कहे सारा जगत बस प्राण के उच्छेद को। ज्ञान ही है प्राण मम उसका नहीं उच्छेद हो।। - - - बंधाधिकार (हरिगीत) मदमत्त हो मदमोह में इस बंध ने नर्तन किया। रसराग के उद्गार से सब जगत को पागल किया ।। उदार अर आनन्दभोजी धीर निरुपधि ज्ञान ने। अति ही अनाकुलभाव से उस बंध का मर्दन किया ।।१६३।। - - - - - - - - - - - -- ______(७ )_ ___ - - - - - - -- - - - - - - - तब मरणभय हो किसतरह हों ज्ञानिजन भयभीत क्यों। वे तो सतत निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें।।१५९।। इसमें अचानक कुछ नहीं यह ज्ञान निश्चल एक है। यह है सदा ही एकसा एवं अनादि अनंत है।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे। वे तो सतत निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें।।१६०।। (दोहा) नित निःशंक सद्वृष्टि को कर्मबंध न होय । पूर्वोदय को भोगते सतत निर्जरा होय ।।१६१।। --- कर्म की ये वर्गणाएँ बंध का कारण नहीं। अत्यन्त चंचल योग भी हैं बंध के कारण नहीं ।। करण कारण हैं नहीं चिद्-अचिद हिंसा भी नहीं। बस बंध के कारण कहे अज्ञानमय रागादि ही ।।१६४।। भले ही सब कर्मपुद्गल ने भरा यह लोक हो। भले ही मन-वचन-तन परिस्पन्दमय यह योग हो ।। चिद् अचिद् का घात एवं करण का उपभोग हो । फिर भी नहीं रागादि विरहित ज्ञानियों को बंध हो।।१६५।। तो भी निरर्गल प्रवर्तन तो ज्ञानियों को वर्त्य है। क्योंकि निरर्गल प्रवर्तन तो बंध का स्थान है।। - - - - - - -- - - -- - - - - - - - - - (९)____---- ____(८१)_____ - - - - - - - - -

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