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अरे पुण्य अर पाप कर्म का हेतु एक है।
आश्रय अनुभव अर स्वभाव भी सदाएक है।। अत: कर्म को एक मानना ही अभीष्ट है। भले-बुरे का भेद जानना ठीक नहीं है ।।१०२।।
(दोहा) जिनवाणी का मर्म यह बंध करें सब कर्म । मुक्तिहेतु बस एक ही आत्मज्ञानमय धर्म ।।१०३।।
(रोला) सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से।
अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में।।
कर्मभाव का परिणमन ज्ञानरूप ना होय। द्रव्यान्तरस्वभाव यह इससे मुकति न होय ।।१०७।। बंधस्वरूपी कर्म यह शिवमग रोकनहार । इसीलिए अध्यात्म में है निषिद्ध शतवार ।।१०८।।
(हरिगीत) त्याज्य ही हैं जब मुमुक्षु के लिए सब कर्म ये। तब पुण्य एवं पाप की यह बात करनी किसलिए।। निज आतमा के लक्ष्य से जब परिणमन हो जायगा। निष्कर्म में ही रस जगे तब ज्ञान दौड़ा आयगा ।।१०९।। यह कर्मविरति जबतलक ना पूर्णता को प्राप्त हो। हाँ, तबतलक यह कर्मधारा ज्ञानधारा साथ हो।।
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(५४
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---..(५४)
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अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते ।
निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ।।१०४।। ज्ञानरूप ध्रुव अचल आतमा का ही अनुभव ।
मोक्षरूप है स्वयं अत: वह मोक्षहेतु है।। शेष भाव सब बंधरूप हैं बंधहेतु हैं।
इसीलिए तो अनुभव करने का विधान है।।१०५।।
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------ अवरोध इसमें है नहीं पर कर्मधारा बंधमय। मुक्तिमारग एक ही हैं, ज्ञानधारा मुक्तिमय ।।११०।। कर्मनय के पक्षपाती ज्ञान से अनभिज्ञ हों। ज्ञाननय के पक्षपाती आलसी स्वच्छन्द हों ।। जो ज्ञानमय हों परिणमित परमाद के वश में न हों ।। कर्म विरहित जीव वे संसार-सागर पार हों।।१११।। जग शुभ अशुभ में भेद माने मोह मदिरापान से। पर भेद इनमें है नहीं जाना है सम्यग्ज्ञान से ।। यह ज्ञानज्योति तमविरोधी खेले केवलज्ञान से। जयवंत हो इस जगत में जगमगै आतमज्ञान से ।।११।।
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(दोहा) ज्ञानभाव का परिणमन ज्ञानभावमय होय । एकद्रव्यस्वभाव यह हेतु मुक्ति का होय ।।१०६।। _______(५५)_______
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