Book Title: Samaysara kalash Padyanuwada
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - (दोहा) द्रव्यास्रव की संतति विद्यमान सम्पूर्ण । फिर भी ज्ञानी निरास्रव कैसे हो परिपूर्ण ।।११७।। - - - - - - - - - आस्रवाधिकार (हरिगीत) सारे जगत को मथ रहा उन्मत्त आस्रवभाव यह। समरांगण में समागत मदमत्त आम्रवभाव यह ।। मर्दन किया रणभूमि में इस भाव को जिस ज्ञान ने। वह धीर है गंभीर है हम रमें नित उस ज्ञान में ।।११३।। इन द्रव्य कर्मों के पहाड़ों के निरोधक भाव जो। हैं राग-द्वेष-विमोह बिन सद्ज्ञान निर्मित भाव जो ।। भावानवों से रहित वे इस जीव के निजभाव हैं। वे ज्ञानमय शुद्धात्ममय निज आत्मा के भाव हैं।।११४।। - - - - (हरिगीत) पूर्व में जो द्रव्यप्रत्यय बंधे थे अब वे सभी। निजकाल पाकर उदित होंगे सुप्त सत्ता में अभी ।। यद्यपि वे हैं अभी पर राग-द्वेषाभाव से। अंतर अमोही ज्ञानियों को बंध होता है नहीं ।।११८।। - - - - - - - - (६०) - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - (दोहा) राग-द्वेष अर मोह ही केवल बंधकभाव । ज्ञानी के ये हैं नहीं तारौं बंध अभाव ।।११९।। (दोहा) द्रव्यास्रव से भिन्न है भावानव को नाश । सदा ज्ञानमय निरास्रव ज्ञायकभाव प्रकाश ।।११५।। (कुण्डलिया) स्वयं सहज परिणाम से कर दीना परित्याग । सम्यग्ज्ञानी जीव ने बुद्धिपूर्वक राग ।। बुद्धिपूर्वक राग त्याग दीना है जिसने । और अबुद्धिक राग त्याग करने को जिसने ।। निजशक्तिस्पर्श प्राप्त कर पूर्णभाव को। रहे निराम्रव सदा उखाड़े परपरिणति को ।।११६।। - - (हरिगीत) सदा उद्धत चिह्न वाले शुद्धनय अभ्यास से। निज आत्म की एकाग्रता के ही सतत् अभ्यास से।। रागादि विरहित चित्तवाले आत्मकेन्द्रित ज्ञानिजन । बंधविरहित अर अखण्डित आत्मा को देखते ।।१२०।। - - - - ____(६१)___ - - - - - - - - - - - -

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