Book Title: Samadhimaran
Author(s): Rajjan Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 191
________________ १७८ समाधिमरण हैं। ये शिलालेख १०वीं से लेकर १४वीं शती के हैं। इन शिलालेखों से श्रीधरदेव के शिष्य नेमिचन्द्र-७, नागकुमार की पत्नी जविकयब्बे, सएलाचार्य-९,अमृतब्बेकान्ति", देवेन्द्र पंडित भट्टारक की शिष्या मारब्बेकन्ति १, सिन्दय्यर, प्रभाचन्द्र सिद्धान्त भट्टारक की शिष्या देवियब्बे९३, महेन्द्रकीर्ति, राचयः५, आचार्य सिंहनन्दि९६, माकब्बेजनित९७, जयकीर्तिदेव के शिष्य नागचन्द्र सिद्धान्तदेव८, कनकनन्दि ९ तथा भास्करनन्दि पंडितदेव.", भोगवे१.१, सातिपेट १०२, नागययने१०३, हव्वक्का१०४, चन्द्रप्रभदेव की शिष्या पेण्डरवाचिमुत्तब्वे१०५, मुनिचन्द्रदेव एवं उनके शिष्य पालयकीर्तिदेव ०६, आचार्य मलधारि१०७, बोम्मब्वे१०८, माघवचन्द्रदेव की शिष्याः०९, देमायप्पर १०, कमलसेन की शिष्या जकौव्वे १५, सकलचन्द्र भट्टारक' १२, कुलचन्द्र भट्टारक के शिष्य सकलचन्द्र भट्टारक'१३, मादवे५५४, सोमदेवाचार्य की शिष्या आकलपे अब्वे १५, नयकीर्ति भट्टारक के शिष्य नालप्रभु गंगर सावन्त सोव११६ अमृतैय १७, चण्डिगौडि ११८, मादैय्य११९, योगीन्द्र के शिष्य बम्मगवड २० केशणंदि भटार के शिष्यों एवं माधवचन्द्र भट्टारकदेव के शिष्य परिसय २१, पद्मप्रभ के शिष्य धर्मसेन २२, नामिसेट्टि'२२, बाचिसोट्टि९२४, विशालकीर्ति राऊल के शिष्य नागचन्द्रदेव २५, बेल्लप'२६, मारदेवी१२७, रामक्क २८, नेमण्ण के पिता और पितामह २९, कमलदेव के शिष्य लोकाचार्य१३०, चटवेगन्ति१३१, नन्दिभट्टारक की शिष्या यिल्लेकन्ति१३२, अनन्तकीर्तिदेव के शिष्य बोप्पय१३३, लक्ष्मीसेन के शिष्य मानसेनदेव५३५, मल्लिराय१३५, रायराज गुरु हेमसेन के शिष्य बलिसेट्टि१३६, गुम्मिसेट्टि१३७, बाचण्ण१३८, चोकिसेट्टि१३९, पुराजी पेवय्य४०, चन्द्रनाथदेव की शिष्या नादोव्वे ४१, बोम्मण्ण१४२, जिनचन्द्रदेव'४३, बोम्मिसेट्टि४४, सायिगवुडि१४५, नागवे४६, सत्यण्ण, शान्तिसेट्टि, शान्तिदेव मुनि एवं माघनन्दि मुनि, नन्दिभट्टारक के शिष्य बोप्पगौड १४८, नेमिदेव आचार्य के शिष्य सिंगिसेट्टि, देविसेट्टि, पदुमव्वे तथा सिंगेय ४९, अकलंकदेव के शिष्य बयिचिसेट्टि५०, भट्टारक के शिष्य मरगोण्ड१५१, यापनीय संघ-कुम्दगण के शान्तिकीरदेव५५२, मलधारिदेव की शिष्या कंचलदेवी१५३ के समाधिमरण का उल्लेख है। इस तरह हम देखते हैं कि मध्यकाल में समाधिमरण की परम्परा का प्रचलन था। समाधिमरण की परम्परा इस काल में पूरे भारतवर्ष में विद्यमान थी, क्योंकि भारत के विभिन्न स्थानों से ये शिलालेख प्राप्त हुए हैं। उदाहरणस्वरूप ये शिलालेख बुन्दलिके, बिदरे, अङ्गडि, नेल्लूर, हिरे-आवलि, कणवे, हलसोरब, मैसूर एवं अन्य कई स्थानों से प्राप्त हुए हैं। मथुरा से भी समाधिमरण का उल्लेख करनेवाले शिलालेख प्राप्त हुए हैं। अगर शिलालेखों की संख्या के आधार पर समाधिमरण की परम्परा पर विचार किया जाए तो एक बात हमारे समक्ष उपस्थित होती है, वह यह कि यह परम्परा प्राचीन काल की अपेक्षा मध्यकाल में अधिक प्रचलित थी। लेकिन यह बात भी ध्यान में रखना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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