Book Title: Samadhimaran
Author(s): Rajjan Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 224
________________ उपसंहार मनुष्य ने जीवन को जितनी गहराई से समझने का प्रयत्न किया है, मृत्यु को उतनी गहराई से कभी समझने की चेष्टा नहीं की है। मृत्यु के विषय में वह दिग्भ्रमित रहा है। मृत्यु क्यों आती है? मृत्यु क्या है? मृत्यु का आना किस प्रकार होता है ? इत्यादि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनकी भयावहता से वह निरंतर त्रस्त रहता है। ‘मृत्यु' शब्द ही उसे अप्रिय लगता है। वह इससे किसी तरह की प्रीति नहीं रखना चाहता है। इसका कारण क्या हो सकता है? अगर हम इस प्रश्न पर विचार करें तो पायेंगे कि मृत्यु जीवन का अन्त है और यह अलगाव का द्योतक है। यह प्राणी को उसके प्राणों से जीवन को अलग कर देती है। जीवन सभी को प्रिय होता है और प्रिय वस्तु से कोई भी अलग नहीं होना चाहता। लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि जिस तरह से सूर्योदय के बाद सूर्यास्त होता है, दिन के बाद रात आती है उसी तरह जीवन के बाद मृत्यु आती है। यह एक क्रम है जो अविराम गति से प्रवाहमान होता रहता है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि व्यक्ति क्यों मृत्यु से भय खाता रहता है? क्या सूर्योदय के बाद सूर्यास्त होने पर वह डर जाता है? दिन के बाद रात का आगमन उसे भयभीत कर देती है? अगर नहीं तो फिर मृत्यु का ही भय क्यों? जिस प्रकार सूर्योदयसूर्यास्त, दिन-रात आदि को एक क्रम मानकर अपनी दिनचर्या निर्धारित करके सुखपूर्वक जीवन बिताया जाता है, ठीक उसी तरह जीवन-मृत्यु को एक-दूसरे का पर्याय मानकर क्यों नही निर्भय जीवन बिताया जाए ? खैर ! यह कह देना और लिख देना जितना आसान है इस पर अमल करना उतना ही ज्यादा कठिन कार्य है। जानते-समझते हुए भी मनुष्य मृत्यु से डरता है और कहता रहता है मरण समं नत्थि भय। मृत्यु के समान दूसरा कोई भय नहीं है। भयः सीमा मृत्युः - सबसे बड़ा और अन्तिम भय है- मृत्यु! साधारणतः मनुष्य किसी दुःख से घबराकर व्याकुल होकर, निराश और हताश होकर कह उठता है- इस जीने से तो मर जाना ही अच्छा है। कभी-कभी जीवन से उसको इतनी निराशा हो जाती है कि भगवान् के सामने मौत भी माँगने लगता है - "हे ! भगवान् मुझे मौत दो ! प्रभो अब मुझे उठा लो, अब मैं जीना नहीं चाहता हूँ' आदि। किन्तु कब तक? जब तक मौत सामने नही आता। मौत के आने पर तो गिड़गिड़ाकर बचने का ही For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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